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✍️ शब्दकार ©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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पानी तो पानी
उसकी अलग ही कहानी,
अब हवा भी
हवा हो रही,
आदमी के जिंदा रहने के लिए
दवा हो गई।
पुड़ियों में आटा,
भरता हुआ सर्राटा,
बोतल, थैली में पानी,
मची हुई खींचातानी,
अब शुद्ध हवा पर ताले,
प्राण बचाने के लाले,
आदमी मौत के हवाले,
पहले ही कहा था,
अरे ओ नादान!
पर्यावरण बचा ले,
पर कहाँ कब कोई माना?
अब किसे देता है ताना,
जब मुश्किल हो गया
जान भी बचाना,
क्या आ गया है जमाना!
बनावटी का शौक चर्राया,
आदमी कृत्रिम की ओर धाया
ये ले अब बनावटी
सिलिंडर में भरी ऑक्सीजन,
जब जाने लगा तेरा तन,
डूबने लगा है मन,
अब चाहिए
असली ऑक्सीजन!
काम नहीं आएगी
तेरी आधुनिक गन,
दूषित जो किया है
अपने जीवन का धन,
मंगल ,चाँद ,शुक्र के यात्री
कहाँ तक बचाएगी
तुझे तेरी धात्री धरती,
वह स्वयं तेरे
पाप-बोझ से मरती!
बेचारी क्या करती!
मौन मूक माँ तेरी,
दुःखी है निज
अंतर में घनेरी ।
बनाई छोड़ी गई गैसें,
नहीं बचा पाएँगीं तुझे ऐसे,
इधर पादपों की कटान,
उधर रो रहे हैं श्मशान,
कैसे करें शव -दाह,
देख सुनकर ही
निकल रही है अपनी आह,
अंततः क्या है
मनुज तेरी दूषित चाह!
ठोंकता अपनी ही पीठ,
आदमी, आदमी नहीं रह गया
बन गया अपने ही पैरों को
काटने वाला विषज कीट,
विष बनाया है
तो पिएगा कौन!
अरे मूढ़ अब क्यों
हो गया है मौन?
हवा के लिए
उड़ने लगी हैं
चेहरे की हवाइयाँ,
कम पड़ रही हैं
प्राण- रक्षक दवाइयाँ!
अब भी लौट कर आ जा,
यदि तुझे चाहिए
प्राणवायु ताज़ा,
तो जीवन में कुछ
हरे पौधे तो लगा जा।
मत मार तू
अपने पैरों में कुल्हाड़ी,
लगा ले 'शुभम' कभी
हरी -हरी बाड़ी,
नहीं तो ये मानवता
ये ज़िंदगी
रह जायेगी
ठाड़ी की ठाड़ी,
चलानी है
यदि सकुशल
जिंदगी की गाड़ी,
तो सचेत हो जा,
जाग जा रे नर मूढ़!
यही है तेरी जिंदगी
का रहस्य कोई गूढ़।
🪴 शुभमस्तु !
०७.०५.२०२१◆६.२५आरोहणम मार्तण्डस्य।
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