बुधवार, 19 मई 2021

ग़ज़ल


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✍️ शब्दकार ©

🌴 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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याद   फिर से  तिरी  आ गई,

बेसबब    और   तड़पा   गई।


आज  देखा   है सपना  हसीं,

ख्बाब में   बेवफ़ा    छा  गई।


 चाँदनी    रात   की    बेबसी , 

मेरे   हिस्से  में   अब    आ गई।


अब नहीं है  किसी  की फ़िकर,

मेरा  दिल   कोई   भरमा गई।


कँपकँपी   से   मैं    थर्रा  गया,

सारी रग -  रग  को गरमा गई।


रात    काली  न   काली  रही,

रोशनी उनके  आने से  आ  गई।


आँख  खुलती 'शुभम'  अब नहीं,

नींद    ख्वाबों   को   भरमा गई।

 

🪴 शुभमस्तु !


०६०५.२०२१◆५.४५आरोहणम मार्तण्डस्य।


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