◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
पाहन-सा घिस-घिस है जाना।
अपना दृढ़ कर्तव्य निभाना।।
जीवन की सरिता है चालू।
घिस-घिस पाहन बनते बालू।
सरिता का सौंदर्य सजाना।
पाहन-सा घिस-घिस है जाना।
लुढ़क रहे हैं धीरे - धीरे।
कुछ मँझधार पड़े कुछ तीरे।।
बढ़ने का हर पल है ठाना।
पाहन-सा घिस-घिस है जाना।
कितने सागर तक जा पाते।
बालू बन कुछ भवन बनाते।।
चलना!चलना!चलना! जाना
पाहन-सा घिस-घिस है जाना।
मानव बनता जाता पाहन।
करता पाप व भरता आह न।
मकड़ी जैसा ताना - बाना।
पाहन-सा घिस-घिस है जाना।
पाहन नहीं पिघलते पाया।
घिस जाने पर लघुतम काया।
सरिता के सँग गाए गाना।
पाहन-सा घिस -घिस है जाना।
'शुभम' सीख बालू से लेता।
नहीं बैठकर अंडे सेता।।
जग में जगता मधुर तराना।
पाहन-सा घिस-घिस है जाना।
🪴 शुभमस्तु !
१७.०५.२०२१◆२.००पतनम
मार्तण्डस्य।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें