बुधवार, 5 मई 2021

गिद्ध - बाजार 🦅 [ दोहा ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

जीवित जन को खा रहे,वर्तमान में  गीध।

कौन नहीं पहचानता,चलें नाक की सीध।।


गिद्धों को बस चाहिए, जीवित ताजा माँस।

सीता या पद्मावती, चलती हो बस   साँस।।


गीधों  के  अवतार को, पहचाना   है    देश।

नोंच-नोंच नर खा रहे,बदल-बदल कर वेश।।


कोई  ठेले   पर  खड़ा,रहे देश कुछ    ठेल।

गिद्धों  के बाज़ार  में,अवसर का  है  मेल।।


दूध  मिलाया  नीर  में,गए गीध सब  गीद।

धनिए में धनियाँ कहाँ, मिले गधे  की लीद।।


लोहे  के  पर लग गए,गीध बने नभ - यान।

पाँव नहीं अब भूमि पर,बहरे उनके  कान।।


था जटायु बस एक ही,नहीं लिया अवतार।

श्रीराम  के  अंक में, गया मोक्ष  के   द्वार।।


इस  कोरोना - काल में,गीधों की  है   बाढ़।

कितने ही बहुरूपिए, लुंचक माँस  प्रगाढ़।।


गीध-वेश पहचानना,'शुभम'न संभव आज।

कोई   है   दूकान   में,   पहने कोई    ताज।।


अपने - अपने  ढंग से ,नोंच रहे  हैं  माँस।

गीध सभी इस देश के,बंद कर रहे   साँस।।


गली, मुहल्ला,सड़क पर,मंचों पर हैं  गीध।

लेताजी तो जा रहे,ठीक नाक की   सीध।।


🪴 शुभमस्तु !


०५.०५.२०२१◆१२.४५ पत नम मार्तण्डस्य।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...