ये आदमी क्यों साथ मिल रहता नहीं है,
आदमी को आदमी सहता नहीं है।
अपने अहम में रात -दिन जी - मर रहा है,
नेह की सरिता में मन बहता नहीं है।
जातियों में बंट गया खुद को मिटाने,
भेद का कोई खेद उसे रहता नहीं है।
उसके दिलों के बीच हैं दीवार ऊँची,
दीवार के उस पार कुछ दिखता नहीं है।
उच्चता के गर्व में रह कर अकेला,
अपने बड़ों से नर ,प्रणत रहता नहीं है।
हिन्दू - मुस्लिम की खड़ी चट्टान इतनी,
पार उनको करके वह उठता नहीं है।
लड़ के आपस में मरा जाता है इंसां,
हैवानियत से दूर कुछ रहता नहीं है।
सत्य की हत्या में है आनंद उसको,
वक़्त पर वह सत्य भी कहता नहीं है।
जाति - मज़हब के लिए इतना पतित है,
तनिक बाहर दायरों (से) रहता नहीं है।
बेपढ़े तो बेपढ़े पढ़कर भी क्या है !
उच्च शिक्षित भी सदा रहता वहीं है।
जाति की आवाज़ ज्यों कूकर की ध्वनि हो,
जाति के उस गर्त में रहता वही है?
देश को फिर से गुलामी देने वालो ,
इससे ज्यादा अब "शुभं" कहता नहीं है।
💐शुभमस्तु!
✍🏼 ©: डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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