नई सभ्यता ने दिए,
अपने झण्डे गाड़।
उलटी नदियाँ बह रहीं,
झड़ने लगे पहाड़।।
सीख बफैलो से लिया,
बफर - प्रणाली भोज।
विवाह पार्टी जन्म दिन ,
सब में देखो रोज़।।
खड़े -खड़े खाएँ सभी,
खड़े -खड़े ही नीर।
प्रकृति विरुद्ध ये सभ्यता,
मार्डन मानव वीर।।
जल्दी के सब काम हैं,
फुर्सत समय न धीर।
अंधी दौड़ लगा रहे,
प्रेम न उर में पीर।।
स्वारथ में डूबे हुए ,
परमारथ क्यों होय।
जैसी करनी मनुज की,
तैसौ ही फल होय।।
बिना लक्ष्य आए यहाँ,
बिना लक्ष्य ही जायँ।
जन्म - मृत्यु के बीच में,
सदा कायं ही कायं।।
सुने न कोई काहु की,
अपनी - अपनी तान।
अहंकार में मगन है,
मानव की संतान।।
मानव - पशु में भेद नहिं,
पशु से लेता होड़।
पशु मानव का गुरु हुआ,
पूर्व सभ्यता छोड़।।
रक्त सभी का लाल है,
जाति वर्ग के भेद।
बड़े - छोट की रार में,
विघटित इंसां नेक।।
वन्य जीव से भय नहीं,
मानव ही आहार।
बचकर मानव रहें,
बदले वेष हजार।।
तन के सब सम्बंध हैं,
मन में घुली खटाई।
संस्कृति हुई विनष्ट सब,
"शुभम" कहाँ अब जाय!!
💐शुभमस्तु!
✍🏼 ©डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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