अपना कूड़ा उसके द्वार ,
कैसे हो पर्यावरण सुधार।
ख़ुद को कुछ करना न पड़े,
अपने द्वारे सजे खड़े।
पॉलीथिन में सब्जी चाय ,
गर्म समोसा मन को भाय।।
रबड़ी दूध दही रस कॉफी,
चाकलेट बिस्कुट और टॉफी।
बिना करे सब कुछ मिल जाय,
सब कुछ कर देगी सरकार।
क्यों घर से थैला ले जायँ,
पोलोथिन वहीं पर मिल जायँ।
सब्जी चीनी बूरा दाल,
पॉलीथिन में दे तू डाल।
उत्पादन पर कोई न रोक,
दुकानदार ग्राहक को टोक।
क्या मजबूरी है सरकार,
तुम्हें न जीना क्या दरकार?
टनों प्लास्टिक पॉलिथिन,
भरी ट्रकों में नित अनगिन।
क्यों उन पर प्रतिबंध नहीं,
क्या उनसे अनुबंध कहीं?
क्या वे रिश्तेदार हैं?
जो उनसे इतना प्यार है!
ले थैली जब चलता ग्राहक,
जुर्माना कर दो तुम बेशक।
छापा डाल दूकान सील कर,
खा जाते उसको भी छील कर।
जेब गरम जब अपनी होती,
कानून भी खूँटी टंग जाती।
मन में जब गन्दगी अपार,
कैसे करे सुधार सरकार ?
पॉलीथिन का हो गया गुलाम,
हल्ला ज्यादा हल्का काम।
नारों से सुधार नहीं होना,
खबर छाप सिर ऊँचा होना।
फोटो देख प्रफुल्ल हृदय तन,
लाभ न होता कहीं एक कन।
बस सुर्खी में ही बहार,
कैसे हो पर्यावरण सुधार?
पौधे लगे सजाकर बैनर,
फ़ोटो खिंचे मुख स्मिति लेकर।
अगले दिन कोई लौट न आया,
ना कहीं पानी ना गुड़वाया।
सिर्फ आँकड़े भेजे शासन,
पूर्ण हुआ ऑर्डर अनुपालन।
यहीं इतिश्री पौधरोपण,
कौन करे फिर किस पर कोपन!
नगरपालिका नरक पालतीं,
नाला -कीचड़ सड़क डालती।
चार दिनों तक खबर न कोई,
जिसका कीचड़ उसका होई।
सुअर करें किलोल नगर में ,
टॉयलेट नहीं कोई नगर में।
कहाँ जायँ नाली पर बैठें!
ग्राम्य नारि -नर मन में ऐंठे।
लघुशंका तो लघुशंका है,
उससे विकट दीर्घशंका है।
उसका तो सोचना व्यर्थ है,
जब छोटी ही यहाँ निरर्थ है।
पर्यावरण सुधार कहाँ है?
बिन शासक का राज यहाँ है।
अंधेर नगरी अनबूझ राजा,
टका सेर इंसां बज गया बाजा।
"शुभम" ये पर्यावरण की कहानी,
तुमने भी जानी मुझको बतानी।
शुभमस्तु!
✍ ©डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"
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