बुधवार, 27 जून 2018

गुबरैला संस्कृति बनाम स्वच्छता अभियान

  केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा देश और प्रदेशों में देश को स्वच्छ और प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए अनेक योजनाएं संचालित की जा रही ही हैं। सभी योजनाएं निश्चय ही सराहनीय हैं , इसके विपरीत उनका क्रियान्वयन समुचित रूप से नहीं हो रहा है। देश में गाँव -गाँव हजारों लाखों की संख्या में शौचालय बनाये जा रहे हैं।किंतु एटा, फ़िरोज़ाबाद और मैनपुरी के कई ग्रामीण क्षेत्रों में  व्यक्तिगत रूप से सर्वे करने के बाद जो दृश्य देखने को मिला, उससे एक ओर तो ग्रामीणों की मानसिकता पर तरस भी आया तो दूसरी ओर बहुत दुःख भी हुआ।देखा गया जो शौचालय उन्ही ग्रामीणों की सहूलियत और सुविधा के लिए बनाये गए हैं, उनका इस्तेमाल उपले, घर का कूड़ा -कबाड़ भरने, भूसा रखने आदि के लिए किया जा रहा है। जिन गांवों में ये बन चुके हैं , वहाँ की महिलाएं, पुरुष, बच्चे और वृध्द सभी आज भी लोटा, बोतल, और डिब्बे लेकर खेतों की ओर ओट ढूँढते हुए देखे जाते हैं। क्या लाभ हुआ शौचालय निर्माण से ! 
  एक कीड़ा होता है, जिसे गुबरैले के नाम से जाना जाता है। यह गोबर में पैदा होता है , गोबर ही उसका घर है औऱ वहीं उसका भोजन ।उसी गोबर में उसका स्वर्ग बसता है। गोबर से बाहर निकल कर जाने की वह सोच भी नहीं सकता। बस यही हाल भारतीय ग्रामीण मानसिकता का है। वह गुबरैला -संस्कृति में 100 प्रतिशत विश्वास ही नहीं करती , बल्कि उसी संस्कृति को जीती है। फिर ऐसे लोगों के लिए शौचालय बनाने का आंकड़ा तो पूरा हो सकता है, लेकिन जब तक उनकी संकीर्ण मानसिकता को नहीं बदला जाएगा, तब तक शौचालय बनाने का कोई लाभ नहीं है। इसके लिए आवश्यकता है कि जन जागरूकता अभियान चलाया जाए, बाद में कोई भी ऐसी योजना सफलतापूर्वक लागू की जा सकती है।ऐसे ऐसे गांव भी देखे गए हैं , जहाँ वर्षों पूर्व शौचालय बनवाए भी गए थे, लेकिन आज वहाँ कोई भी शौचालय नहीं है।
   भारतीय ग्रामीण संकुचित मानसिकता को शिक्षा औऱ  जागरूकता अभियान द्वारा बदले जाने की जरूरत है, अन्यथा झूठे आँकड़ों से भाषण, टी वी समाचार, अखबार आदि खुले में शौच मुक्त अभियान सफ़ल होता रहेगा, और गाँव के लोग वैसे ही लोटा लेकर खेत में जाते रहेंगे। इस  गुबरैला -संस्कृति  में सहज बदलाव नहीं होने वाला।

 शुभमस्तु!
✍लेखक ©
*डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"*

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