कुछ ऐसे लोग भी होते हैं,
जो बिना आग के जलते हैं।
अपने से तो कुछ हो न सके,
करने वाले भी खलते हैं।
दो शब्द न मुँह से फूटे हैं,
मानो कब से वे रूठे हैं,
सत्कर्म उपेक्षित करते वे
मन ही मन हाथों मलते हैं।
'आलू चना' का शौक बहुत,
पर लेश प्रशंसा की न झलक,
अच्छे से उनको चिढ़ सी है,
मन में बस सपने पलते हैं।
अच्छा देखा मुँह बना लिया,
जैसे कुछ हमने छीन लिया,
मुँह भुना हुआ आलू जैसे,
हम कायर उनको कहते हैं।
पीछे - पीछे चुगली करना,
नित छिद्रों में अँगुली करना,
कितने वे शान्त बुद्ध के बुत,
कैसे वे चुपचुप रहते हैं!!
भट्टी -सा हृदय धधकता है,
उनके सम किसकी समता है!
चेहरे पर झलक रहा काला,
दिल से भी काले रहते हैं।
आँखों में "शुभम" ने झाँका है,
भीतर से रिक्त लिफाफा है,
ज्वालामुखियों के स्रोत वहाँ,
कभी मूँ से अंगारे दहते हैं।
💐शुभमस्तु!
✍🏼©डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"
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