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🚸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
मुझे यद्यपि पाखंड का अर्थ बताने ,समझाने की कोई
आवश्यकता नहीं है, तथापि
जब बात पाखंड की चली है ,तो उसकी याद दिलाना भी आवश्यक हो गया है।
पाखंड का अर्थ होता है :
कहना कुछ और करना कुछ।
जो इस पावन दायित्व का निर्वाह करता है , वह बिना संदेह के पाखंडी कहलायेगा।
लेकिन क्या कोई भी पाखंडी , अपने को पाखंडी
कहलाना पसंद करेगा। क्यों ? क्योंकि उसके लिए पाखंडी होना या कहलवाना
एक गाली है। गाली खाने जैसा है।गाली भी एक ऐसी
शै है(वस्तु ) है कि इसे कोई
अपने आप नहीं खा सकता।
यह या तो खिलाई जाती है , या दे दी जाती है। अब ये बात
अलग है कि कोई ले या न ले। जब कोई लेगा नहीं तो
दाता की चीज दाता के पास।
गाली दी गई औऱ ली या नहीं ली ,इसकी पहचान ये है कि
उसे बदले में वही चीज कम या कुछ बढ़ चढ़कर मिले।एक की चार मिलें तो और भी
ज़्यादा अच्छा।तब देने वाले के मन में अंगारे जैसे दहकते
फूल खिलने लगते हैं।खाना तो जबरन ही पड़ता है। लेना या नहीं लेना अलग बात है ।
बात पाखंड की चली है तो पुनः लौटकर वहीं आ जाते हैं।वैसे तो इस संसार में पाखंडियों की संख्या में कोई कमी नहीं है।दस बीस प्रतिशत को छोड़कर सारा जगत ही पाखण्डमय है। मैं क्यों किसी का नाम लूँ कि कौन नेता पाखंडी है , अथवा यह कहूँ कि नेता नाम ही पाखंडी का है , तो क्यों कहूँ भला? क्योंकि यदि कोई थोड़ा सा भी ईमानदार है , तो वह अपने गरेबान में झाँककर बड़े आराम से देख सकता है। अपने धड़ -धड़ धड़कते हुए हृदय -पंप पर हाथ रखकर बहुत अच्छी तरह अनुभव कर सकता है। अब चाहे वह बहुत ऊपर पहुँचा हुआ महात्मा हो , उपदेशक हो , (पर उपदेश कुशल बहुतेरे । इसीलिए तो कहा गया।), शिक्षक हो , कथावाचक हो ,मंत्री या उससे भी ऊपर का हो ।अधिकारी हो , अधिवक्ता हो , कर्मचारी हो, नर या नारी हो। मैं तो किसी का नाम नहीं लेता। क्योंकि जो व्यक्ति जो होता है , वह भला क्यों कहे कि मैं यह हूँ ।यह आत्म- स्तुति जो मानी जाती है।औऱ हमारे 'अति सभ्य' जगत में आत्म-स्तुति अच्छी नहीं मानी जाती। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसे महापाप बतलाया है। कोई ईमानदार पाखंडी अपने को स्वप्न में भी पाखंडी नहीं कहेगा।कितने बड़े ईमानदार हैं पाखंडी लोग ! इसकी दाद देनी ही पड़ेगी।
पाखंडी का एक औऱ भी अर्थ मेरी समझ में आ रहा है। यदि आप उसे भी जानने के जिज्ञासु हैं , तो मुझे भला क्या आपत्ति हो सकती हैं। क्योंकि मैं तो पाखण्ड -पुराण लिखने ही बैठा हूँ। हाँ , तो दूसरे अर्थ में पाखंडी वह भी है जो अपने को उस रूप में प्रदर्शित करता है , जो वह है ही नहीं। इसे पाखंडी अपने वस्त्रों, गणवेश और वाणी के द्वारा दिखाने का सफल - असफ़ल प्रयास करता है। जो सफल हो जाता है , वह पुजने लगता है।फूलमाला , शॉल औऱ प्रतीक चिन्हों से मानित - सम्मानित होने लगता है।
वैसे पाखण्ड का यह विशेष गुण मानव जाति की अमूल्य धरोहर है। पशु -पक्षी , कीड़े - मकोड़े बेचारे क्या खाकर पाखण्ड करेंगे। वे तो कपड़े भी नहीं पहनते । प्राकृतिक अवस्था में ही पैदा होते , जीते और मरते हैं। आदमी पैदा तो उन्हीं की तरह नंगा ही होता है। लेकिन सभ्यता के कपड़े पहनकर उसका चरित्र भी दोगला हो जाता है।गाय , भैंस , गधे , घोड़े , हाथी ,ह्वेल, मछली, मच्छर , मक्खी , गिलहरी , मोर , तोते , कौवे, गौरैया , कबूतर , गलगल, कोई भी पाखण्ड से सर्वथा विरत रहते हैं। क्योंकि वे मानवीय छद्म - सभ्यता के रेशमी चोले नहीं धारण किए रहते ।
जिसने जितने आवरण अपने देह पर लादे , वह उतना ही बड़ा पाखण्डी। पाखंड की माया अपार है। इसमें डूबा हुआ सारा मनुज - संसार है। जितना बड़ा पाखण्डी , उतना ही महान। उतनी ऊँची उसकी शान। एक गरीब, निम्नवर्गीय या समस्तरीय क्या खाकर पाखण्डी बनेगा। पाखण्ड एक कला है , विज्ञान नहीं। कलाकारी के बिना इसकी शान नहीं।जो जितना बड़ा कलाकार ,उतना ही बड़ा समझदार। अब आप ही विचारिए कि क्या पाखण्ड से ही होगा देश का बेड़ापार? आँकड़े कुछ , बताये कुछ, मौके पर न कुछ।अनन्त है ये पाखंड पुराण और धन्य हैं देश औऱ विदेश के पाखण्डी। फिर आम को तो चुसना ही है। क्योंकि आम की नियति ही चुसने की है।मजा तो पाखण्डी के लिए हस्तामलक वत है।
💐शुभमस्तु !
21.02.2020 ◆5.50 अप.
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