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✍ शब्दकार ©
🌷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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1
'प्रिय राधे चलौ जमुना तट पै,
तहँ रंग सों खेलहिंगे हम होरी।
नव कंचुकी देह पै धारि चलौ,
लहँगा - चुनरी हू रहें तव कोरी।।
पिचकारी हमारी धरी भरिकें,
बाँधहु निज छोर में चंदन रोरी।
तुम आगें चलौ हम आय रहे,'
मुस्काय कें मानि गई सखि भोरी।।
2
'गोरे तव गाल गुलाल मलूँ,
बिन रंग लगाए न जावन दैहौं।
नख से शिख लों तोहि बोरि दऊँ,
जमुना - जलधार में जाय कें नैहों।।'
'मति गाल मसोसौ हमारे इते,
वे देखिहें तौ कत बात बतैहों।
चुनरी सिग स्याम भिगोइ दई,
घर जात लजात हों अँखि बचैहों।।'
3
सखि ! फ़ागुन मास लगौ जब तें,
घनस्याम भए मतवारे हमारे।
धरि हाथनु रंग गुलाल फिरें ,
शुभ औसर ढूँढि रहे भिनसारे।।
बारहों मास करें रस - रंग ,
फगुआ में उठी मन चंग पियारे।
कुंज गली में जौ मिलि औचक,
भए गाल गुलाल बिना रङ्ग डारे।।
4
ब्रज ग्वालनु - ग्वालिनि के सँग में,
घनस्याम मचाय रहे होरी।
मुख लीपि भए बदरंग सबै,
रंग बोरि दई साँवरि - गोरी।।
ढप , ढोल , मृदंग बजाय रहे,
लय - ताल सों नाचि रही भोरी।
छवि , छींट की छाय रही पटुका,
करि स्याम रहे जोरा - जोरी।।
5
भीजि गई अँगिया सिगरी,
रंगरसिया घनस्याम न मानें।
लहँगा - चुनरी लिपटे तन सों,
जिद होरी की ठानि लई जानें।।
जब घेरि लए ब्रजवीथिन में ,
नचिवे की सँग स्यामजू ठानें।
अपनी , अपनी , अपनी ही रटें,
अपनी रहै सेर आपनि ज़िद ठानें।।
💐 शुभमस्तु !
25.02.2020 ◆ 9.15 अप.
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