रविवार, 20 जनवरी 2019

शिशिर -सुषमा [ गीतिका]

1
मन   नहीं   करता मेरा,
इस  ठंड  में स्न्नान  को।
कह  रहे  कम्बल  रजाई,
छोड़ मत   स्थान   को।।
ओढ़कर अपनी   रजाई,
स्नानगृह   में जा  'शुभम',
मुँह चुपड़ कपड़े बदल ले,
सूखी   धुलाई  श्रेष्ठतम।।

2
द्रुम    लताएँ   श्वेत   सारे,
शीत  आँचल प्रकृति का।
ठिठरता है   गात   मानव ,
रूप बदला  सुकृति का।।
कीर पशुओं की दशा का,
हाल   अति    बेहाल   है।
निर्वसन   वे कँप  रहे  हैं,
डगमगाती    चाल    है।।

3
साँस  लेती   सरित धारा,
स्वच्छ   निर्मल    नीर  है।
वाष्प मुँह से उठ रहा सित,
जो   नहाए       वीर   है।।
तीर पर बैठा   हुआ  क्यों,
गुनगुनाती      है      नदी।
गुनगुना  पानी   नदी का,
'शुभम' निर्मल  है सभी।।

4
श्वेत   चादर  से  ढँके  हैं,
खेत   गेहूँ    मटर     जौ।
आलु गोभी  गाजरों  की,
ज्यों  रसोई    धूम   सौ।।
हरित  पर्णों  में  बनातीं ,
खाद्य  सूरज  की किरन।
चाह मन में 'शुभम' ऊष्मा,
लू - लपट  होती हिरन।।

5
देव   मंदिर   भवन-छज्जे -
पर   लदीं     बेलें   सघन ।
हनुमतकिरीटीअरुण पुष्पी,
करती हुई मन को प्रमन।।
बुलबलें तितली मचलती,
सघन   पुष्पित  गुच्छ पर।
ताज़गी भरती  नयन युग,
शिशिर शुभ सौंदर्य भर।।

💐 शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
🍁 डॉ. भगवत स्वरूप ''शुभम"

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