रविवार, 13 जनवरी 2019

नीति संग व्यभिचार [ गीतिका ]

कुर्सियाँ   हिलने   लगी   हैं,
झूठ       अत्याचार        से।
काँपती     हैं  टाँग   उनकी,
नीति  संग व्यभिचार   से।।
कोठरी कज्जल की काली,
क्यों      बचाए    कुर्सियाँ।
दीमक  लगे     हैं    टाँग  में,
सारी   मिटा  दें   तुरसियां।।

दिख   रही   पहले   बुराई ,
अब   वही   नित  कर्म  है।
चालबाजी   छल   फ़रेबी ,
रात - दिन   का   धर्म  है।।
गमन  हो  पश्चिम   बताएँ,
पूर्व   को    हम    जा रहे।
ऐसे  सियासत - जाल  में,
फँसकर सुजन तड़पा रहे।।

भेड़   के   रेवड़   सजे   ये,
मत    कहो      ये   रैलियां।
अन्धे   कुएँ  में   गिर   रहीं ,
खनखनाती        थैलियाँ।।
चींटे    चिपकते   जा  रहे,
मधुर  गुड़  की    भेलियाँ।
कीचड़ें    करने   लगी   हैं,
शान्ति   से    अठखेलियाँ।।

धृतराष्ट्र    की  सन्तान  को,
बस   चाहिए    सत्ता  बड़ी ।
अधिकार जन का छीनकर,
हाथ   ले    जादू  -  छड़ी।।
अनय का बहुमत खड़ाकर,
नीति   का   रुख  मोड़कर।
हर मूल्य   पर  सत्ता  मिले,
सद्धर्म  अपना   छोड़कर।।

सत्य     धूलें    फाँकता  है,
पैर     में       छाले      पड़े।
असत   के  मन्दिर   सजे हैं,
आरती     ले   जन    खड़े।।
यान      हेलीकॉप्टरों     में ,
झूठ      तनकर   विचरता ।
अस्तित्वअपना सिद्ध करने,
शुभ सत्य पथ पर बिखरता।

💐 शुभमस्तु !

✍🏼© रचयिता
🌱डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम"

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