शनिवार, 5 जनवरी 2019

गाली पुराण [व्यंग्य]

   काली का कालात्व से सम्बन्ध हो, न हो। खाली का खाल से  सम्बन्ध हो, न हो। परंतु गाली का गाल से गहरा सम्बन्ध अवश्य है। अर्थात जो गाल से निकले वही गाली। आप कहेंगे कि गाल से तो हर बात ही निकलती है, चाहे वह अच्छी हो अथवा बुरी। आपको अच्छी लगे या न लगे , परंतु वह निकलेगी तो गाल से ही न! कहीं  और  से  तो निकलेगी नहीं। भगवान ने अच्छी, बुरी और न अच्छी न बुरी :  इन तीनों प्रकार की बातों का उद्गम स्थल अंततः इस चार अंगुल लंबे चौड़े मुख को ही तो बनाया है। अब यह अलग बात है कि हम उसका उपयोग किस प्रकार करते हैं, सदुपयोग करते हैं या दुरुपयोग करते हैं। बात यदि अच्छी है तो सदुपयोग ही माना जाएगा और यदि अच्छी नहीं है तो उसे दुरुपयोग की संज्ञा से ही अभिहित करने की हमारी विवशता होगी।
   भाषा या वाणी का यह दुरुपयोग भी मेरी दृष्टि में गाली की श्रेणी में गिना जाना चाहिए। कुछ लोगों के मुँह से अनायास ही कुछ ऐसी बातें निकलती रहती हैं, जिन्हें गाली कहना ही उचित है। ऐसी बातों को सुनकर ऐसा लगे कि वहाँ से उठकर चले जाने की प्रबल इच्छा बलवती होने लगे तो यह भी गाली ही है। अथवा यदि सामर्थ्य है तो उसका मुँहतोड़ जवाब ही दे दिया जाए  या और भी अधिक सामर्थ्य है तो उस मुँह को ही न तोड़ दिया जाए, जिसमें से ऐसे अपशब्द निकले, जो किसी के  सुनने योग्य नहीं हैं। ये सभी गालियाँ ही हैं। ऐसे ही कुछ लोग आदमी के नाम पर ही गाली हैं। अब आप ही बतायें कि मैं किसी का नाम क्यों लूँ? मैंने कब कहा कि इस देश के अधिकांश नेता देश के नाम पर गाली हैं । मैं तो नहीं कहता। मैं भला क्यों कहूँ? सारा देश कहता है तो कहे।
कहता रहे। मैं नहीं कहता। अरे भइया ! कहीं कीचड़ में पत्थर मारने से कोई  कीचड़  सफ़ेद हुआ है? बल्कि    कीचड़ को सुधारना तो गधे को गंगा नहलाकर गाय में बदलने जैसा एक निरर्थक प्रयास भर है। न भाई न, मैं ऐसा काम नहीं करता। मैं देश के नेताओं को गाली नहीं देता। उनकी करनी उनके नाम। हमें उससे क्या काम। और हो भी तो क्या कर लोगे ! हम तो नहीं सुधरेंगे, वाली बात है। फिर क्या? कहीं पत्थर पर पत्थर मारने से भी उसका मोम बन पाया है। वह टूट जाएगा, बिखर जाएगा। पर मोम नहीं बनेगा, तो नहीं ही बनेगा। दे लो किंतनी गालियाँ दोगे।
   जो ज़्यादा गाल बजाए, वह भी गाली है अर्थात गाल बजाने वाला। अब गाली तो गाली है। विवाह शादी के अवसर पर महिलाएं  बारातियों, समधी, समधिन को गा गा कर गालियाँ सुनाती थीं। गाने वालियों को गाने में और सुनने वालों को सुनने में रस आता था। कोई भी बुरा नहीं मानता था। जब से उन गालियों में गाया जाने वाला संन्देश सच में साकार रूप धारण करने लगा, तब से गालियाँ गाना बंद ही हो गया। लोग बुरा जो मानने लगे थे, औऱ चोर की दाढ़ी  में तिनका वाली कहावत सर्वसिद्ध होने लगी थी। तब से इन अवसरों की रसभरी गालियों पर विराम लग गया। पूर्ण विराम ही लग गया।
   अब देखिए कि ऐसा भी हमारा एक युग था, जब गालियों में शृंगार रस के झरने बहते थे। आज वहाँ रेगिस्तान है। कितनी दूरदर्शिता थी उस गाली साहित्य में। ऐसा गाली साहित्य जिसे केवल वाङ्गमय रूप में ही रसास्वादित किया जा सकता है। किया जा सकता था। आज की गाली तो गाली के नाम पर गाली है। किसी किसी के मुँह से नारी सूचक अश्लीलता बोधक  शब्द भांडार का मानो शब्दकोश ही प्रस्फुटित होता हुआ दृष्टि गोचर होता है। सुना है हमारे धार्मिक देश में ऐसे भी विभाग हैं, जहाँ आम जनता को गालियों से सम्मानित करने के लिए कायदे से प्रशिक्षण भी दिया जाता है। उसके बाद उन्हें गली , चौराहों पर ऐसे छोड़ दिया जाता है जैसे दूध निचोड़ लेने के बाद लोग गाय माता को आवारा बनाकर दूसरों के खेत चरने के लिए, सड़कों पर स्पीडब्रेकर बनाने के लिए ऐसे छोड़ देते हैं, जैसे कि उनका कभी इनसे वास्ता ही नहीं था। ऐसे गौ भक्त भी देश और गायमाता के नाम पर गाली से कम नहीं हैं।
   ये गाली पुराण कुछ ज़्यादा ही बड़ा होता जा रहा है। और ज़्यादा लिखूँगा तो लोग गालियाँ ही तो देंगे मुझे। लेकिन मैं लूँगा ही नहीं, क्योंकि जब कोई किसी को कुछ दे और वह न ले, तो क्या होगा ! तुम्हारी चीज तुम्हारे पास। ठीक है न! मुझे नहीं लेनी किसी की गाली, इतनी गा ली वही बहुत है।इस पर नहीं  मिलनी है मुझे किसी की ताली।

 💐शुभमस्तु !
✍🏼लेखक ©
🌱 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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