बुधवार, 2 जनवरी 2019

गीता वेद किसे बतलाऊँ ! [ गीत ]

कैसे   गाऊँ   गान   एकता, 
खण्ड - खण्ड  होता इंसान।
गीता - वेद  किसे बतलाऊँ,
बिखर रहा है सकल जहान।।

कुंठाओं   से    ग्रस्त  आदमी,
कहता कुछ करता कुछ और।
नारे   पर    नारे    बजते   हैं,
शब्द मात्र  लेकिन   है  शोर।।
बहरों  के   आगे    कैसे   मैं,
गीतों    में    डालूँगा    जान।

गीता - वेद  किसे बतलाऊँ ,
बिखर रहा है सकल जहान।।

जाति  धर्म   में  टूट  रहा  है,
मात्र   एकता   का   नारा है।
निर्धन  औ'असहाय आदमी,
हालातों   से  नित  हारा है।।
ज्यों  भैंसों  के  आगे  कोई,
बीन बजाकर   हरता प्रान।

गीता -वेद  किसे  बतलाऊँ ,
बिखर रहा है सकल जहान।।

गले में मालाएँ  हैं फूलों की,
'फूल' बनाना  उनका काम।
चाहे  जितने भी डलवा लो,
'फूलों 'में दिन सुबहो-शाम।।
पोषक पालक उत्पादक वे,
फूलों से  ही   उनकी शान।

गीता -वेद  किसे  बतलाऊँ,
बिखर रहा है सकल जहान।।

'धन यौवन से मोह न करना,'
बाबाओं    का   है    उपदेश।
नवल   यौवना  आगे   पीछे,
धन  से  महक  रहा  है वेश।।
साँस   चलाओ  ऊपर  नीचे,
नेत्र   बंदकर  पकड़ो   कान।

गीता -वेद  किसे  बतलाऊँ,
बिखर रहा है सकल जहान।।

शिक्षक का  सम्मान  नहीं है,
गुप्त -ज्ञान का खुला बाज़ार।
शिक्षा  धंधा  बनी  आज तो,
लाख  करोड़ों  का  व्यापार।।
पढ़ -लिखकर वे तेल लगावें,
शिक्षित   नारी   कूटे    धान।

गीता-वेद  किसे    बतलाऊँ,
बिखर रहा है सकल जहान।।

'तुम क्या जानो'कहती संतति,
मात- पिता  का  ये  सम्मान?
परिजीवी शोषक  चूषक बन, 
अकर्मण्यता   का   गुणगान।।
किससे  कहें  वेदना मन की, '
शुभम' देखता जग को छान।।

गीता  वेद   किसे   बतलाऊँ,
बिखर रहा है सकल जहान।।

शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...