यदि घुमा फिराकर न कहें, तो आदमी एक अति गंदगी प्रिय प्राणी है। उसकी इस गंदगी प्रियता के एक नहीं अनेक, दूर नहीं पास, अतीत में ही नहीं वर्तमान में, धरती पर ही नहीं सागर और आसमान में हजारों लाखों उदाहरण दिए जा सकते हैं। जैसे-जैसे आदमी आगे बढ़ता गया,ऊँची -ऊँची पढ़ाई पढ़ता गया, वह अपने दोषों को छिपाने में प्रवीण होता गया। इसीलिए उसने स्वच्छता प्रियता का नारा बुलंद किया और कहा गया कि स्वच्छता में ईश्वर का वास होता है। लेकिन क्या स्वच्छता नारे लगाने से आ जाती है ? निश्चय ही नहीं आती। उसके लिए हमें प्रयास करने पड़ते हैं।
आदमी जन्मतः गंदगी प्रिय था, इसका एक बहुत सशक्त प्रमाण यह है कि उसने अपने द्वारा बनाई गई वर्ण व्यवस्था में उसकी गंदगी को दूर करने के लिए विधिवत एक वर्ण का निर्माण ही कर दिया। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि वह कौन सा वर्ण और जाति है जो आदमी की गंदगी की सफ़ाई के लिए अतीत काल से ही आज तक अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करती चली आ रही है। आदमी कितना विचित्र प्राणी है कि गंदगी वह करे, और उस गंदगी को उठाने का काम उसी जैसी देह, हाथ, पैर, मुँह, नाक, कान, आँख वाला इंसान ही करे!अपनी गंदगी अपने आप साफ़ करने में उसका स्तर गिर जाता है, वह छोटा हो जाता है। उसका सामाजिक महत्व कम हो जाता है। इसीलिए सीना तानकर, ललाट को ऊँचा उठाकर वह अपने को अभिजात्य सिद्ध करने के लिए अपनी तरह के मानव को हेय, पतित औऱ अश्पृश्य बनाकर दुरदुराने में हमेशा आगे रहता है।
जहाँ आदमी होगा, वहाँ गंदगी होगी ही। यह एक ऐसा अकाट्य सिद्धांत बन चुका है (बनाया नहीं गया, क्योंकि कुछ सिद्धांत प्राकृतिक रूप से बनते हैं, उन्हें बनाना नहीं पड़ता।) कि उसे समाप्त करना असंभव-सा है। आज आदमी द्वारा ही धरती, आसमान, सागर, पर्वत, जंगल, नदियाँ, तालाब, खेत, खलिहान, पार्क, ट्रेन, बस , घर, बाज़ार, सड़कें, गलियाँ, स्कूल, कॉलेज, कचहरी, कार्यालय सभी कुछ प्रदूषित हो रहा है। और यह प्रदूषण निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। मानव के द्वारा जितना अधिक स्वच्छता का प्रचार किया जा रहा है, उसी अनुपात में गंदगी औऱ अधिक बढ़ती चली जा रही है। चंद्रमा पर गए तो वहाँ गंदगी छोड़ आये। नदियों में नित्य मानव निर्मित कचरा, मल मूत्र, रासायनिक कचरा, यांत्रिकीय कचरा, बढ़ रहा है। और तो और कचरे को और अधिक बढ़ाए जाने का एक नया सूत्र भी ईजाद कर लिया गया है, जिसे हम बुद्धिजीवी लोग पश्चिम की देन मानकर पल्ला झाड़ लेते हैं। वह नया सूत्र है:USE AND THROW. स्प्ष्ट है कि जितना यूज एंड थ्रो करेंगे, निश्चय ही गंदगी अधिक बढ़ेंगी। उदाहरण के लिए, पहले पंख पेन, कलम, होल्डर, इंक पेन का प्रयोग करते थे। इंक पेन में बार-बार इंक भरते, फिर लिखते। लिखकर फेंक नहीं देते थे। उसे भविष्य में प्रयोग के लिए सहेज-संभाल कर रखते थे। पेन की निब जब तक घिसकर अप्रयोजनीय नहीं हो जाती थी, तब तक उससे लिखा ही जाता रहता था। उसे बहुत ही जल्दी न फेंक देने के कारण पेन और लेखनियों का कचरा नहीं के बराबर होता था। जब से डॉट पेन या जेल पेन की खोज हुई, तब से खरीदो, लिखो औऱ फेंको का सूत्र लागू हो गया। सरकंडे की लेखनी औऱ होल्डर की भी प्रदूषण न फैलाने में यही भूमिका रही है।
यह तो मात्र एक छोटी सी लेखनी की बात कही है। यदि प्लास्टिक, पॉलीथिन, स्टील, आदि से निर्मित अन्य वस्तुओं की चर्चा की जाए तो एक महागाथा ही बन जाएगी। गुटका, पान- मसाला, कुरकुरे, प्लस्टिक की शीशियां, पानी की बोतलें, शीतल पेय, मदिरा, औषधियाँ, टिफिन बॉक्स, औऱ न जाने कितने हज़ारों उत्पाद हैं, जो यूज एंड थ्रो के नाम पर इंसान ने ही बनाए हैं। ईश्वर ने नहीं। ईश्वर निर्मित चीजों से गंदगी नहीं फैलती।पत्ते, फूल, फल, बीज, लकड़ी, जड़, सभी कुछ अपने अगले क्रम में जाकर उपयोगी ही सिद्ध होता है। जैसे फूल से फल, फल से बीज, बीज से पुनः नई सृष्टि -- यही क्रम निरन्तर चलकर अपनी उपादेयता सिद्ध करता है। इसी प्रकार सर्वत्र प्रकृति का यही क्रम है। लेकिन इसके विपरीत मानव स्वयं अपने लिए स्वयं समस्याओं का बीज-वपन कर रहा है।बगीचे, पार्क में जाएगा तो कुरकुरे, टेड़ेमेढे, नमकीन, बिस्कुट के रैपर, पेकिंग फॉइल्स, बिखेर कर चलता बनेगा। स्टेशनों पर तमाम गंदगी सुअर गधे नहीं करते। बल्कि प्रकृति ने तो आदमी की गंदगी की सफ़ाई का एक सजीव चलता-फिरता उपकरण ही वरदान कर दिया है।
आदमी की यूज एंड थ्रो की प्रवृत्ति केवल भौतिक वस्तुओं तक ही सीमित नहीं रह गईं है। वह आदमी से आदमी तक पहुंच गई है। जैसे दूध पीने के बाद यही गाय को गौमाता कहने वाला दोमुंहा इंसान गाय को दूसरों के खेत चरने के लिए छोड़ देता है, वैसे ही अपना उल्लू सीधा होने के बाद आदमी भी आदमी से नज़रें चुराने लगता है।दूर कहाँ जायँ शिष्य तक गुरु को देखकर नज़रें फेर कर खड़ा हो जाता है। कहीं नमस्ते न करनी पड़ जाए! यहाँ तक कि अपनी औलाद भी अपने बूढ़े माँ-बाप को वृद्ध -आश्रम में मरने के लिए छोड़ आती है। यही तो आज के युग का यूज एंड थ्रो है। नई -नई कुछ ज़्यादा ही पढ़ी लिखी बहुएँ सास -ससुर को घर की गंदगी और कचरा मानने लगी हैं। मैं ये कोई अतिशयोक्ति नहीं लिख रहा। नवेली आधुनिकाओं की नज़र में बूढ़े माँ-बाप किसी गंदगी से ज्यादा अर्थ नहीं रखते। ये सब किसकी देन है। आज आदमी आदमी के लिए कचरा है, तो शेष सांसारिक वस्तुओं से यदि कचरा बढ़ाया जा रहा है, कोई आश्चर्य की बात नहीं। बड़ी -बड़ी बातें करने से स्वच्छता नहीं आती। नारों, बैनरों, पोस्टरों, फ्लेक्स से देश स्वच्छ नहीं हो जाएगा। सबसे पहले अपने मन मस्तिष्कों को स्वच्छ करना होगा।
अपना कूड़ा उसके द्वार,
यही आज का सद -आचार,
यूज़ एंड थ्रो कीसभ्यता नेक,
काम निकाला बाहर फेंक,
मन गंदे तन पर नित क्रीम,
नए आदमी की ये थीम,
नारा नारा नारा नारा,
नारेबाजों ने देश उजाड़ा,
निज सिर श्रेय, बढ़ी छपास,
इस मानव से कैसी आस!
फ़ोटोबाजी में तल्लीन,
होता जाता पशु से हीन,
नियम दूसरों के हित बनते,
नियम-नियंता बाहर चलते,
कैसे होगा देशोद्धार,
नेता चाहें बस गलहार,
ऊन भेड़ की छीलें रोज़,
एक मेज पर सबका भोज,
कीचड़ छिड़क नहाएं कुंभ,
बढ़ी गंदगी बढ़ती धुंध।।
💐शुभमस्तु!
✍🏼लेखक ©
🌾 डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"
आदमी जन्मतः गंदगी प्रिय था, इसका एक बहुत सशक्त प्रमाण यह है कि उसने अपने द्वारा बनाई गई वर्ण व्यवस्था में उसकी गंदगी को दूर करने के लिए विधिवत एक वर्ण का निर्माण ही कर दिया। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि वह कौन सा वर्ण और जाति है जो आदमी की गंदगी की सफ़ाई के लिए अतीत काल से ही आज तक अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करती चली आ रही है। आदमी कितना विचित्र प्राणी है कि गंदगी वह करे, और उस गंदगी को उठाने का काम उसी जैसी देह, हाथ, पैर, मुँह, नाक, कान, आँख वाला इंसान ही करे!अपनी गंदगी अपने आप साफ़ करने में उसका स्तर गिर जाता है, वह छोटा हो जाता है। उसका सामाजिक महत्व कम हो जाता है। इसीलिए सीना तानकर, ललाट को ऊँचा उठाकर वह अपने को अभिजात्य सिद्ध करने के लिए अपनी तरह के मानव को हेय, पतित औऱ अश्पृश्य बनाकर दुरदुराने में हमेशा आगे रहता है।
जहाँ आदमी होगा, वहाँ गंदगी होगी ही। यह एक ऐसा अकाट्य सिद्धांत बन चुका है (बनाया नहीं गया, क्योंकि कुछ सिद्धांत प्राकृतिक रूप से बनते हैं, उन्हें बनाना नहीं पड़ता।) कि उसे समाप्त करना असंभव-सा है। आज आदमी द्वारा ही धरती, आसमान, सागर, पर्वत, जंगल, नदियाँ, तालाब, खेत, खलिहान, पार्क, ट्रेन, बस , घर, बाज़ार, सड़कें, गलियाँ, स्कूल, कॉलेज, कचहरी, कार्यालय सभी कुछ प्रदूषित हो रहा है। और यह प्रदूषण निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। मानव के द्वारा जितना अधिक स्वच्छता का प्रचार किया जा रहा है, उसी अनुपात में गंदगी औऱ अधिक बढ़ती चली जा रही है। चंद्रमा पर गए तो वहाँ गंदगी छोड़ आये। नदियों में नित्य मानव निर्मित कचरा, मल मूत्र, रासायनिक कचरा, यांत्रिकीय कचरा, बढ़ रहा है। और तो और कचरे को और अधिक बढ़ाए जाने का एक नया सूत्र भी ईजाद कर लिया गया है, जिसे हम बुद्धिजीवी लोग पश्चिम की देन मानकर पल्ला झाड़ लेते हैं। वह नया सूत्र है:USE AND THROW. स्प्ष्ट है कि जितना यूज एंड थ्रो करेंगे, निश्चय ही गंदगी अधिक बढ़ेंगी। उदाहरण के लिए, पहले पंख पेन, कलम, होल्डर, इंक पेन का प्रयोग करते थे। इंक पेन में बार-बार इंक भरते, फिर लिखते। लिखकर फेंक नहीं देते थे। उसे भविष्य में प्रयोग के लिए सहेज-संभाल कर रखते थे। पेन की निब जब तक घिसकर अप्रयोजनीय नहीं हो जाती थी, तब तक उससे लिखा ही जाता रहता था। उसे बहुत ही जल्दी न फेंक देने के कारण पेन और लेखनियों का कचरा नहीं के बराबर होता था। जब से डॉट पेन या जेल पेन की खोज हुई, तब से खरीदो, लिखो औऱ फेंको का सूत्र लागू हो गया। सरकंडे की लेखनी औऱ होल्डर की भी प्रदूषण न फैलाने में यही भूमिका रही है।
यह तो मात्र एक छोटी सी लेखनी की बात कही है। यदि प्लास्टिक, पॉलीथिन, स्टील, आदि से निर्मित अन्य वस्तुओं की चर्चा की जाए तो एक महागाथा ही बन जाएगी। गुटका, पान- मसाला, कुरकुरे, प्लस्टिक की शीशियां, पानी की बोतलें, शीतल पेय, मदिरा, औषधियाँ, टिफिन बॉक्स, औऱ न जाने कितने हज़ारों उत्पाद हैं, जो यूज एंड थ्रो के नाम पर इंसान ने ही बनाए हैं। ईश्वर ने नहीं। ईश्वर निर्मित चीजों से गंदगी नहीं फैलती।पत्ते, फूल, फल, बीज, लकड़ी, जड़, सभी कुछ अपने अगले क्रम में जाकर उपयोगी ही सिद्ध होता है। जैसे फूल से फल, फल से बीज, बीज से पुनः नई सृष्टि -- यही क्रम निरन्तर चलकर अपनी उपादेयता सिद्ध करता है। इसी प्रकार सर्वत्र प्रकृति का यही क्रम है। लेकिन इसके विपरीत मानव स्वयं अपने लिए स्वयं समस्याओं का बीज-वपन कर रहा है।बगीचे, पार्क में जाएगा तो कुरकुरे, टेड़ेमेढे, नमकीन, बिस्कुट के रैपर, पेकिंग फॉइल्स, बिखेर कर चलता बनेगा। स्टेशनों पर तमाम गंदगी सुअर गधे नहीं करते। बल्कि प्रकृति ने तो आदमी की गंदगी की सफ़ाई का एक सजीव चलता-फिरता उपकरण ही वरदान कर दिया है।
आदमी की यूज एंड थ्रो की प्रवृत्ति केवल भौतिक वस्तुओं तक ही सीमित नहीं रह गईं है। वह आदमी से आदमी तक पहुंच गई है। जैसे दूध पीने के बाद यही गाय को गौमाता कहने वाला दोमुंहा इंसान गाय को दूसरों के खेत चरने के लिए छोड़ देता है, वैसे ही अपना उल्लू सीधा होने के बाद आदमी भी आदमी से नज़रें चुराने लगता है।दूर कहाँ जायँ शिष्य तक गुरु को देखकर नज़रें फेर कर खड़ा हो जाता है। कहीं नमस्ते न करनी पड़ जाए! यहाँ तक कि अपनी औलाद भी अपने बूढ़े माँ-बाप को वृद्ध -आश्रम में मरने के लिए छोड़ आती है। यही तो आज के युग का यूज एंड थ्रो है। नई -नई कुछ ज़्यादा ही पढ़ी लिखी बहुएँ सास -ससुर को घर की गंदगी और कचरा मानने लगी हैं। मैं ये कोई अतिशयोक्ति नहीं लिख रहा। नवेली आधुनिकाओं की नज़र में बूढ़े माँ-बाप किसी गंदगी से ज्यादा अर्थ नहीं रखते। ये सब किसकी देन है। आज आदमी आदमी के लिए कचरा है, तो शेष सांसारिक वस्तुओं से यदि कचरा बढ़ाया जा रहा है, कोई आश्चर्य की बात नहीं। बड़ी -बड़ी बातें करने से स्वच्छता नहीं आती। नारों, बैनरों, पोस्टरों, फ्लेक्स से देश स्वच्छ नहीं हो जाएगा। सबसे पहले अपने मन मस्तिष्कों को स्वच्छ करना होगा।
अपना कूड़ा उसके द्वार,
यही आज का सद -आचार,
यूज़ एंड थ्रो कीसभ्यता नेक,
काम निकाला बाहर फेंक,
मन गंदे तन पर नित क्रीम,
नए आदमी की ये थीम,
नारा नारा नारा नारा,
नारेबाजों ने देश उजाड़ा,
निज सिर श्रेय, बढ़ी छपास,
इस मानव से कैसी आस!
फ़ोटोबाजी में तल्लीन,
होता जाता पशु से हीन,
नियम दूसरों के हित बनते,
नियम-नियंता बाहर चलते,
कैसे होगा देशोद्धार,
नेता चाहें बस गलहार,
ऊन भेड़ की छीलें रोज़,
एक मेज पर सबका भोज,
कीचड़ छिड़क नहाएं कुंभ,
बढ़ी गंदगी बढ़ती धुंध।।
💐शुभमस्तु!
✍🏼लेखक ©
🌾 डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें