गुरुवार, 17 जनवरी 2019

भक्त -चालीसा [छन्द:दोहा] (भाग:4)

मज़हब -  भक्त   महान हैं,
जैसे         पत्थर    लीक।
पट्टी    बाँधे     नयन    पर,
बस मज़हब के नीक ।।31।।

गुबरैला      गोबर     बसे,
बस     इतना       संसार।
गोबर की   ही   महक में ,
उसका जीवन -सार।।32।।

गोबर   के    बिल  में बसे ,
मज़हब -  भक्त    अनेक।
बाहर  झाँका  फिर  घुसे,
यही भक्ति  की  टेक।।33।।

जीभ - लालसा  के लिए,
अंडे       माँस       शराब।
धर्म-ग्रंथ   में    क्या  यही ,
लिखा मज़हबी-आब??34।।

धर्म -  भक्त   होना  सही,
मत        होना     धर्मांध।
अंधे  की   लकड़ी   लिए,
मत    फैला    दुर्गंध।।35।।

जीव    मात्र    रक्षा   करें,
मानवता      का     काम ।
अपना - सा  समझें  उन्हें,
पशु खग वृक्ष ललाम।।36।।

जीव -  आत्मा     में  बसे,
प्रभु   का    सच्चा    रूप।
आत्मा का   सम्मान  कर,
निर्मल स्वच्छ स्वरूप।।37।।

त्याग  वसनवत  देह  को,
आत्मा     बदले      गात।
आत्मा की है जाति क्या,
समझ तत्त्वगत बात।।38।।

मानुष  मछली  तितलियाँ,
पंछी          पादप     बेल ।
जाने कब   किस  रूप में,
खेले आत्मा  खेल।।39।।

 उदर   तेरा   श्मशान   है,
अंडे               मांसाहार।
जिनको तूने   खा   लिया ,
तू  उनका   आहार।।40।।

चौरासी   लख  योनि  में,
भटक   रहा    रे     जीव।
फिर  कैसी   ये    हेकड़ी,
"शुभम"कर्म की नींव!!41।।
     
💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
💞 डॉ.भगवत स्वरूप"शुभम

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...