हे अग्निदेव!
अनादिकाल से आज तक,
चकमक पत्थरों से
अरणी तक,
इतिहास से
अभी तक,
तुम देव थे
तुम देव हो,
तुम देव ही रहोगे,
पूज्य आराध्य
प्रत्यक्ष किंवा परोक्ष
ही रहोगे।
जठर में
सागर में
वन में
अंतर्निहित हो तुम,
पाकशाला में
प्रत्यक्ष साकार हो तुम,
पंचभूतों में
सृष्टि के सृजन में
तुम ही एक महत्तत्व।
अंकुरण बीज का
वनस्पतियों में,
गर्भाधान क्षणों में
पत्नियों -पतियों में,
प्रकृति मानव -जीवन की
प्रत्येक गतियों में
रार में रतियों में
हे अग्ने! तुम्हीं हो।
भवन में
हवन में
अर्थी की अगन में
मानुष के मन में,
लगन में,
जन्म में मरण में
सब तुम्हारी सरन में।
भानु के प्रकाश में,
चन्द्र के सुहास में,
तारों के उजास में,
पुष्पों के विकास में,
पादप उल्लास में,
भुजबन्धित पाश में,
तुम्हीं हो अग्ने तुम ही हो!
अधरों का अधरों से स्पर्श,
युगल देह रोमांच हर्ष,
चेतन का चेतन संघर्ष,
भ्रूण में नवजीवन उत्कर्ष,
हृदय की हर धड़कन,
सृष्टि का प्रति कण कण,
हस्ती पिपीलिका -सा क्षण,
तुम्हारा ही अस्तित्व -संसूचन
हे अग्निदेव!
विडम्बना हमारी
मानव की कैसी ?
न कहीं मन्दिर
न प्रतिमा ही तुम्हारी,
न पूजा
न आरती ही उतारी!
इसीलिए
क्रोधावेश में जलाते हो,
आकार भी निराकार भी
सकल सृष्टि चलाते हो
हे अग्निदेव!!
💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप '"शुभम"
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