परिभाषाएँ बदलने में
बहुत ही कुशल हैं हम,
अपने स्वार्थ के लिए
हवाओं के रुख भी
बदल देते हैं हम,
हवाएँ ही बदल देते हैं हम,
क्या यह सच नहीं है?
बस एक अवसर की तलाश है,
कोई ज़िंदा है या लाश है!
और कोई -कोई ज़िंदा लाश है,
कोई अर्थ नहीं इसका,
हमें तो चलना है
अपनी बनाई राह पर,
कानों में रुई लगाए,
आकाश की ओर मुँह उठाए।
अभी -अभी बदली है
एक और परिभाषा,
गरीब की परिभाषा,
बस हो गया तमाशा,
असली गरीब के गाल पर
जोरदार तमाचा,
मानवता के हृदय पर
खोद दिया गया खाँचा,
क्या किसी ने भी
अपना गरेबाँ बाँचा ?
क्या यही है
आज के लोकतंत्र का ढांचा?
अब आठ लाख रूपए सालाना,
छियासठ हज़ार छः सौ छियासठ
रुपए प्रतिमाह,
दो हज़ार दो सौ बाईस रुपए
हर दिन-
की आय वाला,
गरीब कहलाएगा,
जी हाँ ,
गरीब कहलाएगा,
असली गरीब के मुँह पर
मारकर झन्नाटेदार थप्पड़,
प्रजातंत्र का झंडा फहराएगा।
दो वक़्त की रोटी
नहीं मयस्सर जिसको,
चिथड़े भी नहीं
तन ढँकने भर को,
रहने को नहीं
झोपड़ी भी जिसको,
किस परिभाषा से
नवाजा जाएगा?
उसे इस देश में
जन्मने का अधिकार नहीं है क्या?
आयकर दाता भी
ग़रीब की परिभाषा के
मखमल में लिपट गया!
वोट की चोट से
कौन उजड़ा?
कौन सँवरा ?
सुनार की हथौड़ी है
सोने के सुधार के लिए,
नहीं है तो बस
किसी भी विचार के लिए ??
💐 शुभमस्तु !
✍🏼 रचयिता ©
🌾 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें