गुरुवार, 31 मार्च 2022

तेरे जीवंत चित्रों का दरबार: चित्रगुप्त दरबार 🤖 [ अतुकांतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🤖 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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तेरे चारु अथवा

अचारु चरित्रों का

गुप्त दरबार,

तेरी अपनी

सीमा के पार,

लगा हुआ है।


किसी को

स्वर्ण सिंहासन 

किसी को

पर्वतीय ऊँचाइयाँ,

किसी के लिए

खुदा हुआ 

गहरा आग का

कुँआ है,

जो कुछ भी

तेरे अतीत में

हुआ है 

अथवा किया है,

जीवन जो

तूने  जिया है,

वही तो 

बिना आवरण 

तू स्वयं भी

यहाँ धर लिया है,

क्या तूने फाड़ा 

क्या सिया है।


न्याय का दरबार है ये

जो जीवन भर 

गुप्त ही रहा,

हर आम और खास से

लुप्त ही रहा,

यहाँ कुछ भी

गुप्त भी नहीं है,

लुप्त भी नहीं है,

सब सही ही सही है,

 इस जीवन के  अंत में

खुल गई तेरी

 पक्की बही है,

न्याय का सच्चा दरबार

सजाने और

 सजा देने का

महा दरबार,

दूध का दूध

पानी का पानी,

वहाँ जाना है तुझे

जहाँ जातियाँ नहीं,

भ्रांतियाँ भी नहीं,

सब कुछ सही ,

खुलने वाली है

सच्ची बही,

यहीं है 

तेरे कर्मों का 

दरबार!


माटी के खेत में

कुछ ऐसा उगा ले,

जो जन्म जन्मांतर तक

तेरी योनि को सजा ले,

जन्म लेकर तो

सुअर कुत्ते भी

किसी तरह 

जी लेते हैं,

एक -एक

अस्थि खंड के लिए,

लड़ते हैं,

औऱ निबट जीते हैं,

क्या जीना

किसी मच्छर की तरह

पल भर में 

मसल देते हैं,

ऐसे जिए तो

क्या जिए,

क्या यही 

मानव धर्म है?

पर बेशर्मों की 

आँखों में

क्या शेष 

लेश शर्म है?


🪴 शुभमस्तु !


३१.०३.२०२२◆४.३०पतनम मार्तण्डस्य।

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