■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
✍️ संस्मरण ©
💃🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
कल 03 मार्च गुरुवार था। मैं लखनऊ से नई दिल्ली जाने वाली गोमती एक्सप्रेस में सपत्नीक यात्रा कर रहा था। हमें नई दिल्ली में अपने बेटे के कमरे पर जाना था।शिकोहाबाद के बाद किसी बड़े स्टेशन से स्वतंत्र केशांगिनी, टाइट जींस, ढीली कमीज और हाई हील में सुसज्जित दो सुंदरी गोरी-चिट्टी सुस्फूर्त बालाएँ (संभवतः बहनें) ट्रेन की उसी बोगी में सवार हुईं और मेरे सामने की दो बर्थ पर आसीन हो गईं।
इस ट्रेन में सभी सीटें केवल बैठने के लिए आरक्षित की जाती हैं।सोने या टाँगें पसार कर तीन की सीट को एक के द्वारा हथियाने की कोई 'सु -व्यवस्था ' यहाँ नहीं है। लेकिन ये भारत देश है। स्वतंत्र भारत। कुछ भी मनमानी करने के लिए स्वतंत्र भारत और हम लोग। किंतु इसके बावजूद यहाँ व्यवस्था बनाने वालों की कोई कमी नहीं है।जहाँ चाह हो वहाँ राह निकाल ही लेते हैं लोग।
मैं खिड़की वाली सीट पर बैठा हुआ था।अचानक क्या देखता हूँ कि आई हुईं दोनों बालाएँ जिनकी आयु लगभग अट्ठाईस तीस वर्ष के आसपास होगी, प्रत्येक सीट के सामने मजबूत चादर की लगे हुए मेजनुमा स्टैंड पर अपनी टाँगें फैलाये हुए बैठी हैं। एक बार उन्होंने यह भी प्रयास करके देखा कि अपनी बर्थ को और पीछे की ओर फैला लिया जाए ,ताकि वे आराम से अपनी टाँगें फैलाकर पसर सकें, किंतु एक बार यह देखकर कि पीछे भी लोग बैठे हुए हैं ;कोई आपत्ति कर सकता है; एक बार ग्रीवा मोड़कर देखने के बाद झेंप कर अपना निर्णय बदल लिया। अब वे निश्चिंत होकर उसी मुद्रा में पसर कर ऊँघने लगीं।
देखते ही मुझे बहुत खटका।लेकिन चाहते हुए भी मैंने उन्हें रोका - टोका नहीं। क्योंकि यदि ऐसे उच्च शिक्षित सुंदर गोरे-चिट्टे देह धारी मानवों को यह स्वतः संज्ञान नहीं हैं कि ये सुविधा रेलवे विभाग ने इसलिए नहीं दी ,कि आप उन पर पसर कर जाएँ ! बल्कि इसलिए दी है कि आप उस रखकर प्रात राश कर सकें अथवा भोजन कर लें। ऐसे पढ़े-लिखे 'अति सभ्यों ' को समझाया भी कैसे जा सकता है। कहीं ऐसा न हो कि आ बैल मुझे मार। उन्हें इसलिए लगाया गया है कि आवश्यकता न होने पर उसे मोड़कर सीधे कर दें ,जिससे किसी को लघुशंका निवारणार्थ ,स्टेशन पर उतरने , नई सवारी के आने पर बैठने आदि के लिए कोई असुविधा न हो। जिस काम का अंजाम उनके द्वारा दिया जा रहा है ;उस काम के लिए तो कदापि नहीं बनाई गईं।
हम अपनी सभ्यता का कितना ही गुणगान करें किंतु अभी भी हमें ये सहूर नहीं आया कि शौचालय में कैसे बैठा जाता है।यह हमारे देश के चरित्र की ही पहचान है कि शौचालय में मग्गे को भी जंजीर से जकड़ कर रखना पड़ता है। दर्पण,बल्ब ,ट्यूब लाइट्स औऱ पंखों को कटघरे में बाँधकर रखना पड़ता है । ऐसे चरित्र प्रधान देश में यदि लोग भोजन की मेज पर पसर कर जाएँ, तो आश्चर्य क्या ? संस्कार ही ऐसा है! कभी -कभी तो ये सोचना पड़ता है कि यहाँ जिन्हें गाँव का गँवार कहते हैं औऱ अति से उच्च शिक्षितों में कोई अंतर नहीं है।यहाँ सारे धान बाईस पंसेरी ही तोले जाने को बाध्य हैं।
सुलभ सुविधाओं के दुरुपयोग की इस सभ्यता में सहज सुधार आने की संभावना निकट भविष्य में नहीं हैं, जहाँ दूसरों को सीख देने वाला मानव स्वेच्छाचारिता का गुलाम है। ऐसी सभ्यता के वाहक जन का कानून भी कुछ बना -बिगाड़ नहीं पाती।क्या हम इसी सभ्यता के गौरव के गीत गाते हुए अघाते नहीं। कहावत है कि कुत्ता भी बैठता है तो अपनी पूँछ से झाड़कर बैठता है।पर ये आज का अति प्रबुद्ध वर्ग! इसे कोई सही रास्ते पर नहीं ला सकता।क्या ऐसे 'अति- सभ्यों' के लिए पुलिस व्यवस्था करना आवश्यक है? यह एक विचारणीय प्रश्न है! नियम,क़ानून की धज्जियाँ उड़ाना ही इनके गौरव और मान -सम्मान का द्योतक है।क्या हम नैतिकता विहीन भारत की ओर नहीं जा रहे हैं! हमारी नई पीढ़ी के लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात है। देश की सभ्यता पर जोरदार आघात है।
🪴शुभमस्तु !
०४.०३.२०२२◆११.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें