शनिवार, 26 मार्च 2022

आओ जाति-जाति खेलें 🙈 [ व्यंग्य ]


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 ✍️ व्यंग्यकार © 

 🙉 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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         हम सब अपने को इंसान कहते हैं।पशु -पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों से भी बहुत महान। इस धरती माता की शान।ज्ञान औऱ गुणों की आकाश जैसी अनन्त खान। मियाँ मिट्ठू अपने ही आप इंसान।जंगल में खड़े होकर अपनी मूँछें रहा है तान।इस बात से कौन रहा है अनजान! परंतु इस मानव के सभी खेल हैं बड़े निराले।समझ नहीं सकता कोई इसकी चालें।जो बन जाएँ किस क्षण इसकी कुचालें! कोई नहीं जानता। 

       यों तो मनुष्य ये कहते हुए नहीं थकता कि मनुष्य पहले पशु है ,बाद में मनुष्य।किन्तु मुझे यह पहले औऱ बाद में भी पशु ज्यादा औऱ बीच - बीच में मनुष्य दिखलाई पड़ता है।यत्र -तत्र इसकी मानवता का देव स्वरूप दिखाई दे जाता है , अधिकांश में वह पशु ही दिखाई पड़ता है।उसकी पाशविकता उसके सिर चढ़कर ही नहीं बोलती ,पूरे शरीर, मन और मष्तिष्क पर ही सवार होकर चीखती, चिल्लाती ,गाती और बजाती है।अपने अस्तित्व और अपनी खुशी के लिए किसी को भी फूटी आँखों पसंद नहीं करता।यहाँ तक कि एक ही छत के नीचे साथ -साथ रहने वाली नारी ;जिसे सहधर्मिणी ,पत्नी ,भार्या, देवी, कांता, लक्ष्मी औऱ न जाने कितने सुनहरे नामों से अभिहित करता है ,उससे नित्य निरंतर महाभारत करना इसका प्रियतम खेल है। अपनी अभिजात्यता,देह की शक्ति, दिमाग की असीम पावर को सिद्ध करने के किसी भी अवसर को छोड़ना तो मानो किसी ने उसे क्लीव कह दिया हो। भला कोई क्लीव कहे ,और वह सहज स्वीकार कर ले ,कभी हो सकता है ऐसा? ये तो एक छत के नीचे के संग्राम और संगम की बात। जहाँ प्यार है,वहीं रार है ,तकरार भी है। सब कुछ नकद है ,उधार कुछ भी नहीं है। अड़ौस -पड़ौस में कोई भी हो ,उससे जलना, लड़ना ,भिड़ना , अपना उल्लू सीधा करना ये इस 'महामानव' के 'अति मानवीय' गुण हैं।कभी कभी प्यार प्रदर्शन करना कभी नहीं भूलता।इस प्यार प्रदर्शन के लिए ही वर्ष में होली, दिवाली, दशहरा, ईद,लोहड़ी आदि अनेक अवसर पैदा कर लेता है।विवाह को भी उसी उत्सवधर्मिता का अंग बनाकर नाच- कूद कर लेता है। 

      आदमी का सबसे बड़ा औऱ लोकप्रिय खेल है 'जाति-जाति'। इसके लिए बराबर वह विभिन्न सुअवसर पैदा कर ही लेता है।जब जान पर बन जाती है तो 'जाति' को कौने में उठाकर रख देता है।जब प्राणों पर बन जाती है तो हॉस्पिटल में नहीं पूछता कि जो खून उसे चढ़ाया जाने वाला है ,वह किस जाति के व्यक्ति का है?डॉक्टर,नर्स की जाति क्या है;यह भी नहीं जानना चाहता ।ट्रेन,बस या बाजार में खाया जाने वाला भोजन किसने बनाया ?वह किस जाति का है! गोल गप्पे के खट्टे पानी में बार -बार हाथ डुबाकर गोल गप्पे खिलाने वाले की जाति क्या है? होटल के मालिक, बियरर, कर्मचारी, रसोइया किस जाति से संबंध रखते हैं, कुछ भी जानने -पूछने की जरूरत नहीं समझी जाती।यहाँ वह देवता बन जाता है। साक्षात देवता। चौके से चौकी तक , बहुत ज्यादा चौक तक जाति का जबरदस्त खेल चलता है।

          लोकतंत्र का महान उत्सव कहे जाने वाले मतदान पर्व का जातीय खेल किसने नहीं खेला! नेता, अधिकारी, मतदाता ,प्रत्याशी कोई किसी से पीछे नहीं है। चाहे परोक्ष हो या प्रत्यक्ष ;जाति-खेल तो जोर शोर से खेला ही जाता है। बल्कि प्रत्याशी को टिकट ही इस आधार पर लेने होते हैं ,कि उसकी जाति की बहुतायत है अथवा नहीं।यही जाति के खिलाड़ी जब संसद और विधान सभा में जाते हैं तो वहाँ भी इस खेल में खोए रहते हैं। उन्होंने पारंगतता ही जातीय- खेल में प्राप्त की है ,तो उससे विमुख कैसे रह सकते हैं।जनता को नौकरी देने में भी यह जाति का नगाड़ा खूब बजाया जाता है। नेता तो नेता ,बड़े- बड़े विद्वान प्रोफ़ेसर, प्राचार्य, वकील ,इंजीनियर ,अधिकारी,संत -महंत जातीय -खेलों के पक्के खिलाड़ी होते हैं।जाति के बिना उनका अस्तित्व ही नहीं, तभी तो अपने नामों के आगे -पीछे विभिन्न जाति सूचक सुनहरे शब्द जोड़ना नहीं भूलते;ताकि उनकी जाति का बंदा बिना पूछे -बताए हुए ही समझ जाए कि अगला अपनी ही जाति का है। कवियों के झुंड भी इसी आधार पर निर्मित किये जाने लगे हैं।समाजसेवियों ,धर्म प्रेमियों, मज़हबी जनों सबमें जाति-खेल अति लोकप्रिय हैं। कोई किसी से कम नहीं है। 

              सब कौवे एक जैसे हो सकते हैं ,परन्तु मनुष्य नहीं।सब गधे, घोड़े, भैंसे, गाय ,साँड़, भेड़ ,बकरी, कुत्ते ,बिल्लियाँ, चूहे ,मुर्गे, मुर्गियाँ भले ही एक जैसे हो जाएँ ,परंतु मानव यदि एक जैसा हो जाये तो मानव किस बात का !मानव बिना जाति के जिंदा नहीं रह सकता ।कुछ जातियों को तो जाति के खेलों को बढ़ा - चढ़ा कर जनता में प्रचार-प्रसार करना मुख्य कार्य है। वे इसके कार्य के ठेकेदार हैं। उनकी रोटी ही जातिगत खेलों से चलती है। इसलिए त्यौहारों का आयोजन भी मनुष्य और मनुष्यता के नाम पर न होकर जातियों में बाँट दिया है। रक्षाबंधन :ब्राह्मण, दीवाली: बनिया, दशहरा: क्षत्रिय और होली: शूद्रों के त्यौहारों के नाम से ख्याति प्राप्त किये हुए हैं। पशु -पक्षियों, पेड़-पौधों को भी जातियों के खेल के शिंकजे में फँसाने का खेल भी कम जोर शोर से नहीं चलाया जा रहा है।एक दिन ऐसा भी आने वाला है ;जब धरती, आकाश, अग्नि, वायु औऱ सागर को भी जातियों के खेल में सम्मिलित कर लिया जाएगा।यह सब इस मानव के ही कारण होगा।खून भले सबका लाल हो ,पर चमड़ी के रंग के आधार पर भेदभाव का खेल बहुत पुराना है ,जो आज तक और अधिक ताकत के साथ फल -फूल रहा है।मनुष्य अंततः मनुष्य है; उसका जातिवादी खेल ब्रह्मांडव्यापी होने वाला है ,जब विमान, ट्रेन,बसें और जलयानों की भी जातियाँ होंगीं । 

        जब जाति से जाता रहता है मानव अथवा दुनिया से जाता रहता है ; तब वह मात्र देह (बॉडी) मात्र रह जाता है। मनुष्य भी नहीं ,वर्ण भी नहीं,अवर्ण भी नहीं, सवर्ण भी नहीं ;मात्र एक' पार्थिव शरीर।' यही है उसकी वास्तविक तस्वीर। जाति जाती रहने वाली है ,पर उसका गुमान कितना? न जाने तू किस यौनि में क्या बनने वाला है ? कुछ ज्ञात है ? कीड़ा ,मकोड़ा, गधा , घोड़ा , शुद्र, ब्राह्मण, वैश्य या क्षत्रिय ! फिर किस बात का तनना? किस बात का बनना? न किसी की सुनना! न किसी की मानना! 

 कदली का तरु जात है,ज्यों पल्लव में पात। 

 जात, जात में जात है,जात, जात में जात।। 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 २६.०३.२०२२◆११.३०

 आरोहणं मार्तण्डस्य।


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