शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

पाँच वर्ष का मेला

पाँच   वर्ष   का  मेला   है।
क्या क्या  हमने  झेला  है।।

चतुर   खिलाड़ी   खेला   है।
झूठवाद   का  रेला       है।।

वोटर   दीन    अकेला    है।
मीठा   गुड़   का  भेला  है।।

कैसा   विकट   तमाशा   है!
कोई न   जिनसे   आशा  है।।

तमाशबीन  सब   जनता है।
जिस के बल "वो"तनता  है।।

चरण   चूम  आगे    बढ़ता ।
उसके  ही सिर  पर चढ़ता  ।।

जनता   एक     मदारी   है।
उसकी   सब    किरदारी है।।

भाँप   न  पाते  टोपी  झण्डे।
पलते आश्रय   नित मुस्टंडे ।।

खाते   पीते   मौज    मनाते ।
कहते इसकी    उसे   दुहाते।।

यही आँख और कान यही ।
जो ये    फूंकें   सदा   सही ।।

कच्चे   कान   के  नेता होते ।
इनके   पैरों   चलते    सोते ।।

इनके   ये    जासूस    करीब।
जो ये कहें पाषाण,-लकीर ।।

पाँच वर्ष   का कुम्भ महान ।
नेता नहाए   फिरे   जहांन ।।

जनता तो जैसी   की तैसी ।
सदा रहे   ऐसी    की ऐसी ।।

उनकी   किस्मत  कारें ए सी।
चुसने को बस  जनता  देशी।।

जितने पिछड़े जनता जनार्दन।
उतने  ही     नेता    उत्पादन ।।

जितनी ऊँची जिसकी शिक्षा ।
नेता की नहि   चहिए  भिक्षा ।।

पढ़ें लिखें सब भारतवासी।
मिटे देश की सकल उदासी।।

शुभमस्तु 

-डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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