काश इस इंसान का कोई मज़हब नहीं होता,
कोई हिन्दू मुसलमा या क्रिस्तान नहीं होता।
कोई ऊँचा कोई नीचा कोई गोरा काला है,
बहाता खून इंसां का कोई इंसान नहीं होता।
धर्म के नाम पर जितना बहाया रक्त जाता है
इंसान के सीने में कोई पाषाण नहीं होता।
आदमी के कद से ऊँची दीवार फैली है
आदमी का दिल कभी वीरान नहीं होता।
झूठे दिलासे के लिए मानव-शृंखला बनती
ब्राह्मण-दलित का ये फ़र्क फिर फैला नहीं होता।
रेवड़ी बाँटते अंधे बंधी आँखों पे पट्टी है,
धृतराष्ट्र की नजरों में दुर्योधन नहीं होता।
सियासत तोड़ती मानव बांटती जाति में उसको,
एकता हो रही खंडित मुल्क हैवान नहीं होता।
इंसान से बेहतर तो चिड़ियाँ और पखेरू हैं,
वहाँ हिन्दू मुसलमा क्रिस्तान नहीं होता।
"शुभम"मज़हब धर्म की दीवार जब टूट जाएगी,
आदमी को चूसने वाला कोई कोई इंसां नहीं होगा।।
शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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