कितना कर्ण प्रिय और मधुर - मधुर, मादक और मोहक लगता है जब कानों में ये शब्द जाते हैं: सबका साथ सबका विकास कानों में पड़ते ही मानो अमृत घुल जाता है। लगता है कि जैसे भगवान राम का रामराज्य ही आ गया। आ हा ! हा!! कितने प्यारे, कितने रस भरे और दुःख हारे शब्द हैं : सबका साथ सबका विकास। लेकिन जब गम्भीरता पूर्वक विचार करते हैं तो लगता है कि यह एक असम्भव कल्पना है। यदि ऐसा हो जाए तो सियासत के धुरंधर नेताओं की सारी योजनाएं औऱ राजनीति पल भर में समाप्त हो जाएगी। फिर तो देश में बरसाती मेढकों की तरह अखबारों और टी वी पर टर्र -टर्र करते हुए सारे दल ही समाप्त हो जाएंगे। क्या आप या कोई ये कभी स्वप्न में भी सोच सकता है कि हाथी कमल को अपने पैरों तले रौंद कर सत्ता का ऊँचा सिंहासन न प्राप्त करना चाहे। क्या साइकिल नहीं चाहती कि कि वह फूल को मसल-मसल न डाले। एक अनार सौ बीमार। कुर्सी एक दावेदार अनेक। सभी की एक ही चाहत कि कोई मेरा नाम ले दे प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए। ऐसी हालत में क्या देश के दलदल में फंसे राजनेता क्या ये चाहेंगे कि सबका साथ उन्हें मिल जाएगा। ऐसा न कभी हुआ न होगा। और न है।
इन चार बरसों में सिवाय कीचड़ उछालने की होली के सिवाय कुछ और हुआ? कीचड़ उछालने की जैसे प्रतियोगिता ही चल रही हो ! कौन कितनी ज्यादा बदबूदार कीचड़ उछाल सकता है! बस यही देखा है सारे देश ने? अन्यथा सभी दलों के राजनेता अपनी टी -शर्ट , कुर्ता ,जाकिट के ऊपर के दो बटन खोलकर ये देख लें, तो सारी कीचड़ वहीं भरी नज़र आएगी। बस उछालने से मतलब। न आसन देखा, न सिंहासन देखा, न अपना पद देखा , न कद देखा, बस एक सड़कछाप आदमी की तरह कीचड़ फेंकते रहे। न अपनी नाक देखी , न साख देखी! बस कीचड़ उछाल ! कीचड़ उछाल!! चाहे उदघाटन हो, अभिवादन हो, भाषण चुनाव प्रचार का हो, या सम्मेलन पत्रकार का हो , सब जगह कीचड़ होली। न दिवाली पर दीप जले, न दशहरे पर देश - रक्षा के फूल खिले, न रक्षाबंधन पर रक्षा सूत्र बँधे, बस बारहों मास , सातों दिन , चौबीसों घंटे, एक ही जुनून कीचड़ ! कीचड़!! और कीचड़ !!! और फिर ये उम्मीद करो कि 'वे' सब तुम्हारा साथ देंगे।
सब साथ देंगे तो न कोई जातिगत विवाद होगा, न आरक्षण का नाद होगा, न हिन्दू, मुस्लिम , सिख , ईसाई की बात उठेगी। सबके विकास की बात तो कभी सोची ही नहीं गई, न सोची न जाएगी, न सोची जा सकती है, न सोची जा रही है। यदि मुंह खुला हुआ है तो कान भी खोल के रखना जरुरी है। आंधी , तूफान और तानाशाही ज्यादा दिन नहीं चलतीं। यदि सबका साथ लेना था , तो उसके कितने प्रतिदर्श आपने अपने उच्च आदर्श के रूप में प्रस्तुत किए। उसकी कोई सूची है? अपने वेतन बढ़ाने के मुद्दे पर सब साँप -छुछुन्दर एक साथ मेजें थपथपा कर एक स्वर से समर्थन करते हैं ,लेकिन जब देश का राष्ट्रीय वार्षिक बजट प्रस्तुत किया जाता है तो उसमे पानी पी -पीकर कमियाँ खोजी जाती हैं । ये सब क्या है? क्या इन्हीं चीजों से सबका साथ सबका विकास हो सकता है?देश की रक्षा के बिंदु पर जब सबको एकजुट रहकर सामुहिक रूप से विचार विमर्श करना चाहिए, क्या कभी ऐसा हुआ? या केंद्र सरकार ने ऐसी कोई पहल कभी की ? सभी अन्य दल टांग खिंचाई में लगे रहे। नुक्ताचीनी करते रहे। क्या यही सबका साथ सबका विकास है? ओबीस, एस सी, एस टी और जनरल को लड़ाने के लिए आरक्षण का चिराग रगड़ कर एक जिन्न खड़ा कर दिया। लड़ो औऱ मरो। क्या यही सबका साथ सबका विकास, है? नित नए मुद्दों को जन्म देकर देश की शांति को भंग करने का अपराध किसने किया ?
मित्रों! नारों से देश नहीं चलता। फूट डालो और राज करो की राजनीति करने वाले फिरंगी अब इतिहास हो गए हैं। सबका इतिहास बनता है। कोई पन्नों में दफ्न हो जाता है औऱ किसी के पन्ने पलट - पलट देखे जाते हैं। यहाँ कोई अमर नहीं है। सबका इतिहास (अर्थात ऐसा था) बनना ही है। इसलिए ऐसा इतिहास बनाओ कि आगामी पीढ़ियाँ प्रेरणा ले सकें। बड़े-बड़े नारे गढ़ लेना, बहुत आसान बात है। ऐसे खोखले और असम्भव हजारों नारे मुझसे ले जाए , जिसको भी ज़रूरत हो। परन्तु कोई गारंटी नहीं दी जा सकती। आदर्श और यथार्थ में गधे और घोड़े का अंतर होता है। सबका साथ औऱ सबका विकास कोई रस मलाई नहीं है, कि एक अदन्ता भी गप्प से मुँह में रख ले! करो कुछ और, कहो कुछ और ।यही सियासत है। यहाँ सचाई और सच्चों का कोई स्थान नहीं, मान नहीं, सम्मान नहीं। कहकर कर ही दिया , तो ये राजनीति ही कहाँ रही? जाओ पूरब और बताओ पश्चिम, यही आज की राजनीति है।यहाँ साँच बोलना पाप है।झूठ बोलना महापुण्य है। वह राजनीति और राजनेता धन्य है!!!
💐शुभमस्तु !
लेखक✍🏼 ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम "
सब साथ देंगे तो न कोई जातिगत विवाद होगा, न आरक्षण का नाद होगा, न हिन्दू, मुस्लिम , सिख , ईसाई की बात उठेगी। सबके विकास की बात तो कभी सोची ही नहीं गई, न सोची न जाएगी, न सोची जा सकती है, न सोची जा रही है। यदि मुंह खुला हुआ है तो कान भी खोल के रखना जरुरी है। आंधी , तूफान और तानाशाही ज्यादा दिन नहीं चलतीं। यदि सबका साथ लेना था , तो उसके कितने प्रतिदर्श आपने अपने उच्च आदर्श के रूप में प्रस्तुत किए। उसकी कोई सूची है? अपने वेतन बढ़ाने के मुद्दे पर सब साँप -छुछुन्दर एक साथ मेजें थपथपा कर एक स्वर से समर्थन करते हैं ,लेकिन जब देश का राष्ट्रीय वार्षिक बजट प्रस्तुत किया जाता है तो उसमे पानी पी -पीकर कमियाँ खोजी जाती हैं । ये सब क्या है? क्या इन्हीं चीजों से सबका साथ सबका विकास हो सकता है?देश की रक्षा के बिंदु पर जब सबको एकजुट रहकर सामुहिक रूप से विचार विमर्श करना चाहिए, क्या कभी ऐसा हुआ? या केंद्र सरकार ने ऐसी कोई पहल कभी की ? सभी अन्य दल टांग खिंचाई में लगे रहे। नुक्ताचीनी करते रहे। क्या यही सबका साथ सबका विकास है? ओबीस, एस सी, एस टी और जनरल को लड़ाने के लिए आरक्षण का चिराग रगड़ कर एक जिन्न खड़ा कर दिया। लड़ो औऱ मरो। क्या यही सबका साथ सबका विकास, है? नित नए मुद्दों को जन्म देकर देश की शांति को भंग करने का अपराध किसने किया ?
मित्रों! नारों से देश नहीं चलता। फूट डालो और राज करो की राजनीति करने वाले फिरंगी अब इतिहास हो गए हैं। सबका इतिहास बनता है। कोई पन्नों में दफ्न हो जाता है औऱ किसी के पन्ने पलट - पलट देखे जाते हैं। यहाँ कोई अमर नहीं है। सबका इतिहास (अर्थात ऐसा था) बनना ही है। इसलिए ऐसा इतिहास बनाओ कि आगामी पीढ़ियाँ प्रेरणा ले सकें। बड़े-बड़े नारे गढ़ लेना, बहुत आसान बात है। ऐसे खोखले और असम्भव हजारों नारे मुझसे ले जाए , जिसको भी ज़रूरत हो। परन्तु कोई गारंटी नहीं दी जा सकती। आदर्श और यथार्थ में गधे और घोड़े का अंतर होता है। सबका साथ औऱ सबका विकास कोई रस मलाई नहीं है, कि एक अदन्ता भी गप्प से मुँह में रख ले! करो कुछ और, कहो कुछ और ।यही सियासत है। यहाँ सचाई और सच्चों का कोई स्थान नहीं, मान नहीं, सम्मान नहीं। कहकर कर ही दिया , तो ये राजनीति ही कहाँ रही? जाओ पूरब और बताओ पश्चिम, यही आज की राजनीति है।यहाँ साँच बोलना पाप है।झूठ बोलना महापुण्य है। वह राजनीति और राजनेता धन्य है!!!
💐शुभमस्तु !
लेखक✍🏼 ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम "
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