इस जगत में अनेक धर्म ,मज़हब और मत - मतान्तर हैं, जिनके नाम गिनाने की यहाँ आवश्यकता नहीं है।विभिन्न भौगोलिक , सामाजिक और भाषा-साहित्य के संस्कारवश जगत में अनेक धर्म पैदा हुए हैं, किन्तु इनमें से कोई भी धर्म पूर्ण नहीं है। मानव की स्वार्थवृत्ति ने धर्म को कलंकित कर प्रदूषित कर दिया है। इसलिए उनमें कट्टरपन , अंधविश्वास औऱ भ्रष्ट्राचार पैदा हो गया है।यहाँ तक कि आज आदमी ने अपने अनुसार उसे अपनी ओर मोड़कर कर गंदगी पैदा की है।
सभी धर्म अच्छे हो सकते हैं, लेकिन स्वार्थी महंत, पुजारी और पंडे उसे शुद्ध नहीं रहने देना चाहते। सीधे -सादे शब्दों में " जिसे धारण किया जाए , वही धर्म है" ,किन्तु हम धारण करना तो नहीं चाहते , दूसरों को कराना भर चाहते हैं। उसमें अपना आर्थिक लाभ अनुसंधान कर हमने उसे छोटा मोटा नहीं , अच्छा -खासा धन्धा बना लिया है। किस -किस धर्म का नाम लेकर पोल खोली जाए , यह स्वतः समझने योग्य है। जैसे शिक्षा एक बड़े उद्योग के रूप में उभर रही है , वैसे ही धर्म भी उससे बहुत पहले से उद्योग धन्धा बन चुका है। वास्तविकता ये है कि कोई भी धर्म असली नहीं है। असली धर्म है एक मात्र मानव धर्म। जिस धर्म की भी आलोचना कीजिए या उसकी वास्तविकता पर प्रकाश डालिए तो अंधे भक्त आस्था और विश्वास के नाम पर बुरा मानने लगते हैं।और कहने वाले को नास्तिक करार देते हैं। जिसकी रोटी धर्म के गर्म तवे पर सिंकती हो, भला उसके लिए तो धर्म व्यवसाय है , खेती है , कारखाना है, धंधा है, बैंक है, तिजोरी है, क्योंकि उसीसे उसकी आजीविका चल रही है। संसार में धार्मिकता कम धर्मांधता अधिक है , इसी धर्मांधता के कारण उसके अंध विश्वासों पर उँगली उठाना लोगों को बुरा लगता है , क्योंकि इससे उसकी असलियत की पोल खुलने लगती है, और उधर अंधविश्वास का ही नाम आस्था है। अंधविश्वास की सजी हुई दुकानें, आम आदमी तो बस ग्राहक है, खरीदार है। आस्था और अंधविश्वास में शंका के लिए कोई स्थान नहीं है , क्योंकि इससे उनकी दुकान की कमाई कम होती है। दुकान के बंद रहने का खतरा मंडराने लगता है। जिस देश में अंधेरे में हिलते अकौए की पूजा होने लगे ,तिलक छाप लगाए ढोंगियों को संत माना जाना लगे, चमत्कार या हाथ की सफाई से बेवकूफ बनाकर उसे जादूगर माना जाने लगे, विज्ञान के सिद्धान्तों पर आधारित प्रयोगों से मूर्ख बनाया जा सके, उस देश की आस्था का क्या कहना? पानी में बीटाडीन डालकर यदि गोमूत्र डालकर उसे पारदर्शी औऱ साफ दिखाकर लोगों को चमत्कृत किया जाता है , यही काम मानव मूत्र से भी होता है , तो क्या मानव मूत्र और गोमूत्र एक की वर्ग के हो जायेंगे? नहीं। चाहे कोई भी मूत्र डाला जाए , पारदर्शी होने पर उसके मिनरल्स उसी के अंदर रहते हैं। फिर उसमें कुछ भी क्यों न डाला जाए, फर्क क्या पड़ता है! इस प्रकार की बहुत सी बातें विश्वास जमाने के लिए दिखा दी जाती हैं । पर धर्म एक अलग ही संकल्पना है।
जितनी मारकाट और हिंसा धर्म के नाम पर आज तक विश्व में हुई है, उतने तो सैनिक भी किसी युद्ध में नहीं मारे गए। क्या धर्म हिंसा सिखाता है? क्या बिना हिंसा के धर्म जिंदा नहीं रह सकता? अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे को हेय और छोटा दिखाने की भावना सबसे बड़ी बेहूदगी ,और अज्ञानता है। धर्म मरना मारना नहीं, जीना सिखाता है। मानव को महामानव बनना सिखाता है। जो दूसरे व्यक्ति या धर्म को छोटा समझता है, वह चाहे कुछ भी हो,धर्म हो ही नहीं सकता। धर्म एक व्यापक संकल्पना है। धर्म एक विज्ञान है। जहाँ अवैज्ञानिकता हो , वह धर्म कैसे हो सकता है? आँखों पर अविवेक की पट्टी बांधने का नाम धर्म नहीं है। इसलिए सबसे बड़ा धर्म मानव धर्म है, जो जीना और जिलाना सिखाता है। मरना और मारना नहीं। समस्त जीवों में एक ही परम आत्मा निवास करता है। कर्मानुसार शरीर बदल जाने पर उसका शरीरांतरण होता है। धर्म की गति, नीति और प्रतीति विचत्रतापूर्ण है।वह सबके समझने की नहीं है।सिंहनी का दूध स्वर्णपात्र में ही ठहरता है। वैसे ही धर्म सबके धारण की वस्तु नहीं है। घोड़े को देखकर मेढकी के नाल ठुकवाने की चीज नहीं है धर्म। लकीर के फकीर होने का नाम धर्म नहीं है। धर्म लकीर पर नहीं चलता , लकीर बनाता है।खुली आँखों से संसार को देखो , पोंगापंथी और ठगविद्या छोड़ो। तभी सच्चे धर्मानुयायी बन सकोगे।
💐शुभमस्तु!
✍🏼लेखक ©
डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम"
सभी धर्म अच्छे हो सकते हैं, लेकिन स्वार्थी महंत, पुजारी और पंडे उसे शुद्ध नहीं रहने देना चाहते। सीधे -सादे शब्दों में " जिसे धारण किया जाए , वही धर्म है" ,किन्तु हम धारण करना तो नहीं चाहते , दूसरों को कराना भर चाहते हैं। उसमें अपना आर्थिक लाभ अनुसंधान कर हमने उसे छोटा मोटा नहीं , अच्छा -खासा धन्धा बना लिया है। किस -किस धर्म का नाम लेकर पोल खोली जाए , यह स्वतः समझने योग्य है। जैसे शिक्षा एक बड़े उद्योग के रूप में उभर रही है , वैसे ही धर्म भी उससे बहुत पहले से उद्योग धन्धा बन चुका है। वास्तविकता ये है कि कोई भी धर्म असली नहीं है। असली धर्म है एक मात्र मानव धर्म। जिस धर्म की भी आलोचना कीजिए या उसकी वास्तविकता पर प्रकाश डालिए तो अंधे भक्त आस्था और विश्वास के नाम पर बुरा मानने लगते हैं।और कहने वाले को नास्तिक करार देते हैं। जिसकी रोटी धर्म के गर्म तवे पर सिंकती हो, भला उसके लिए तो धर्म व्यवसाय है , खेती है , कारखाना है, धंधा है, बैंक है, तिजोरी है, क्योंकि उसीसे उसकी आजीविका चल रही है। संसार में धार्मिकता कम धर्मांधता अधिक है , इसी धर्मांधता के कारण उसके अंध विश्वासों पर उँगली उठाना लोगों को बुरा लगता है , क्योंकि इससे उसकी असलियत की पोल खुलने लगती है, और उधर अंधविश्वास का ही नाम आस्था है। अंधविश्वास की सजी हुई दुकानें, आम आदमी तो बस ग्राहक है, खरीदार है। आस्था और अंधविश्वास में शंका के लिए कोई स्थान नहीं है , क्योंकि इससे उनकी दुकान की कमाई कम होती है। दुकान के बंद रहने का खतरा मंडराने लगता है। जिस देश में अंधेरे में हिलते अकौए की पूजा होने लगे ,तिलक छाप लगाए ढोंगियों को संत माना जाना लगे, चमत्कार या हाथ की सफाई से बेवकूफ बनाकर उसे जादूगर माना जाने लगे, विज्ञान के सिद्धान्तों पर आधारित प्रयोगों से मूर्ख बनाया जा सके, उस देश की आस्था का क्या कहना? पानी में बीटाडीन डालकर यदि गोमूत्र डालकर उसे पारदर्शी औऱ साफ दिखाकर लोगों को चमत्कृत किया जाता है , यही काम मानव मूत्र से भी होता है , तो क्या मानव मूत्र और गोमूत्र एक की वर्ग के हो जायेंगे? नहीं। चाहे कोई भी मूत्र डाला जाए , पारदर्शी होने पर उसके मिनरल्स उसी के अंदर रहते हैं। फिर उसमें कुछ भी क्यों न डाला जाए, फर्क क्या पड़ता है! इस प्रकार की बहुत सी बातें विश्वास जमाने के लिए दिखा दी जाती हैं । पर धर्म एक अलग ही संकल्पना है।
जितनी मारकाट और हिंसा धर्म के नाम पर आज तक विश्व में हुई है, उतने तो सैनिक भी किसी युद्ध में नहीं मारे गए। क्या धर्म हिंसा सिखाता है? क्या बिना हिंसा के धर्म जिंदा नहीं रह सकता? अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे को हेय और छोटा दिखाने की भावना सबसे बड़ी बेहूदगी ,और अज्ञानता है। धर्म मरना मारना नहीं, जीना सिखाता है। मानव को महामानव बनना सिखाता है। जो दूसरे व्यक्ति या धर्म को छोटा समझता है, वह चाहे कुछ भी हो,धर्म हो ही नहीं सकता। धर्म एक व्यापक संकल्पना है। धर्म एक विज्ञान है। जहाँ अवैज्ञानिकता हो , वह धर्म कैसे हो सकता है? आँखों पर अविवेक की पट्टी बांधने का नाम धर्म नहीं है। इसलिए सबसे बड़ा धर्म मानव धर्म है, जो जीना और जिलाना सिखाता है। मरना और मारना नहीं। समस्त जीवों में एक ही परम आत्मा निवास करता है। कर्मानुसार शरीर बदल जाने पर उसका शरीरांतरण होता है। धर्म की गति, नीति और प्रतीति विचत्रतापूर्ण है।वह सबके समझने की नहीं है।सिंहनी का दूध स्वर्णपात्र में ही ठहरता है। वैसे ही धर्म सबके धारण की वस्तु नहीं है। घोड़े को देखकर मेढकी के नाल ठुकवाने की चीज नहीं है धर्म। लकीर के फकीर होने का नाम धर्म नहीं है। धर्म लकीर पर नहीं चलता , लकीर बनाता है।खुली आँखों से संसार को देखो , पोंगापंथी और ठगविद्या छोड़ो। तभी सच्चे धर्मानुयायी बन सकोगे।
💐शुभमस्तु!
✍🏼लेखक ©
डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम"
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