गुरुवार, 2 अगस्त 2018

बिझुका

   बिझुका का नाम तो हम सभी ने सुन रखा है। महात्मा  कबीर के इस पद में आया है :--
जतन बिनु मिरगनी खेत उजारे।
   ×      ×       ×      ×      ×
बुधि मेरी किरषि गुरु मेरो बिझुका अक्खिर दोऊ  रखवारे।
यहाँ गुरु को बिझुका माना गया है, जो बिझुका बनकर बुद्धि रूपी कृषि की रखवाली करता है। कोई बिझुका किसी खेती की रखवाली के लिए अपने आप खेत में गढ़ने के लिए नहीं पहुँच जाता, वरन उसे किसी दो टांग, दो हाथ, दो आँखें , दो कान , एक मुँह , द्विछिद्रि एक नासिका धारी किसी चलते -फिरते इंसान द्वारा फ़सल को चरने वाले वन्य पशुओं से रखवाली के लिए खेत में गाढ़ दिया जाता है।अर्थात उस बिझुके की अपनी निजी कोई औकात , सामर्थ्य  या शक्ति नहीं है। वह अपने में पूर्णतः निर्जीव , अशक्त औऱ पराधीन है। लेकिन खेत में गाढ़े जाने के बाद वह चौबीस घण्टे , सातों दिन और महीनों महीनों तक खेत में गाढ़ा जाकर भी एक ही स्थान पर ध्यानावस्थित होकर अपनी ड्यूटी को पूरी तरह से अंजाम देता है। उसकी ये ड्यूटी काबिले - तारीफ़ है। क्योंकि पहली बात तो ये कि वह स्वयं फ़सल को खाता नहीं है। दूसरे किसी पशु आदि को खाने भी नहीं देता। वह यह प्रतिज्ञा करके चलता है कि न तो खाऊंगा और न खाने दूँगा। और उसका मालिक किसान चैन की चदरिया तानकर रैन में खैनी खाते हुए सुबह लम्बी सी अँगड़ाई मारकर हरिओम हरिओम कहते हुए उठता है।
   इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि न खाऊंगा न खाने दूँगा एक धोखे का कपटजाल (साजिश) है, जो अपनी कपट योजना में पूरी तरह सफल हो जाता है। इस कपट जाल की खोज आदमी रूपी कपटकारी की काली करतूत का कुपरिणाम ही तो है। इसमें बिझुका का अपना कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष योगदान नहीं है।
   ये तो रही खेती औऱ बिझुके की बात। लेकिन क्या बिझुकों से देश चला करते हैं? देश चलाने वाले बिझुके न तो निर्जीव हो सकते हैं औऱ न ही वे किसी किसान की कूटनीति के तहत ज़बरन गढ़े होते हैं। अगर खेत में गाढा गया बिझुका ही खेत की फ़सल को रौंदने लगे,  बुरी तरह नष्ट करने लगे, तब तो उसके मालिक का ये पूरा अधिकार हो जाता है कि वह उसे उखाड़ फेंके और कोई नया ईन्तज़ाम करे।एक बिझुका मौन रहकर खेत की रक्षा नहीं कर पाता औऱ दूसरा गा गाकर, ढोल पीट - पीटकर खाऊंगा न खाने दूँगा, का राग अलापते -अलापते नहीं थकता। और मज़े की बात तो ये देखिए कि जंगली जानवर अपनी असली या नकली मूँछों पर ताव देते हुए सारा दाना -पानी खाते हुए फुर्र हो गए। कौन सा बिझुका उनकी पूंछ उखाड़ पाया! वाह रे ! मेरे देश !! वाह रे अंधे भक्तो! लड़ते रहो : तू कौआ है, मैं हंस हूँ,  तू बगला है, मैं मोर हूँ,  तू गधा है , मैं घोड़ा हूँ। औऱ उधर गिद्ध, बाज औऱ आस्तीन के सांप अपने काम कर गए औऱ बोलने वाले  चपल, चतुर, चालाक, चमत्कारी बिझुके देखते रह गए। उधर भक्त जन आरती उतार रहे हैं:
जय जय  बिझुका  स्वामी
मेरे  जय बिझुका   स्वामी
तुम सम और न कोई इस जग में नामी
अब तो तुमहू ढूंढों इक अच्छी बाँबी,
जय जय बिझुका स्वामी
साठ साल से देख रहे तुम अवतार धरो ,
हम पापी नीच कुचाली , तुम कब उद्धार करो,
हमरी किस्मत खोटी  हमरी तुम  चाबी,
रिस्वतखोर बढ़ रहे  कब सुधरे भावी?
जय जय बिझुका स्वामी।।
जो कोई बिझुका स्वामी की आरती  नित गावे,
स्विट्जरलैंड पधारे लंडन बसि जावे,
सब ही इच्छा पूरी करौ  सफ़ल मेरी,
नौ महीने की देरी  करौ न अब बेरी,
तुम ही मेरे ईश्वर तुम ही गुरु  नामी,
दामोदर से दूरी अब न करो स्वामी।

जय जय बिझुका स्वामी
मेरे जय   बिझुका स्वामी।।
बोल  बिझुका नंद महाराज की जय!
चर्मनेत्रधारी अंध भक्तन की शै,
जिसकी जय जयकार न करी हो ऐसा भी कोई है?

💐 शुभमस्तु  !

लेखक✍🏼©
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम "

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...