शनिवार, 23 फ़रवरी 2019

रोटियाँ सेंकने का मौसम [व्यंग्य]

   हर काम का एक मौसम होता है। जैसे स्वेटर बुनने का मौसम, मूंगफलियां खाने का मौसम, रजाइयां ओढ़ने का मौसम, रजाइयां हटाने का मौसम, अपनी दाल गलाने का मौसम, ,कीचड़ उछालने का मौसम आदि आदि। इसी प्रकार से अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकने का भी अपना एक सुहावना मौसम होता है। जो मौसम की नज़ाकत को भाँप लेते हैं, वे 'बुध्दिमान' लोग कहलाते हैं। इसलिए मौसम को ज़रूर भाँपते रहना चाहिए। यही सयाने लोगों का
काम होता है। और आपको यह अच्छी तरह से विदित ही है कि इस देश में सयाने लोगों की कोई कमी नहीं है।हर शहर, हर गली, हर विधान सभा और देश भर में सयाने लोगों को एल. ई. डी. लेकर ढूँढने  निकलो तो एक नहीं, अनेक मिल जाएंगे।
   अपनी रोटियाँ सेंकने वाले लोगों की मौक़े की नज़ाकत क्या है। ऐसे समय में हमें क्या और कहाँ बोलना चाहिए!ये सोचने -विचारने की तो ज़रूरत ही नहीं समझी जाती। अरे भई! उनका काम तो महज़ अपनी गरम-गरम रोटियाँ जो सेंकना है, कोई मरे या जिए, कोई बिलखे या आँसू के घूँट पिए, फटा हुआ हो या सीए हुए-इन्हें तो बस अपनी रोटियाँ सेंकनी। जो जितने ऊँचे ओहदे पर बैठा हो, वह रोटियाँ सेंकने में उतना ही अधिक उस्ताद। यहाँ उस्तादों की कमी नहीं। आप कहेंगे कि एक आध उस्ताद का नाम भी गिना दीजिए। तो भाई ! बस यही काम मत कराओ। क्योंकि यहाँ आदमी भले अंधे-बहरे हों, पर दीवारों के भी कान और मुँह होते हैं। यहाँ की दीवारें सुनती भी हैं और बाकायदे बोलती भी हैं। जब सुनेंगीं तभी तो बोलेंगीं।
   इन अपनी -अपनी रोटी सेंकनहारों को देश तो दिखाई देता ही नहीं। बस ऊँची वाली कुर्सी ही दिखाई पड़ती है। किसी तरह वह हथिया ली जाए, बस जो सामने वाले ने पांच साल में किया है, वह हम एक ही साल में निपटा लें।देश का विकास तो गौड़ बात है। ज़्यादा महत्वपूर्ण ये है जो अकरणीय है, वह किया जाए। उस अकरणीय के लिए ही रोटियाँ सेंक -सेंक कर खाई जाती हैं।
   अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकने की एक 'पवित्र' परम्परा ही चल रही है। जैसे होली में कीचड़ उछालने की परंपरा के अंतर्गत कोई बुरा मानें तो कैसे? क्योंकि' बुरा न मानो होली है।' पहले इस देश में वसंत यानी फाल्गुन चैत्र में ही होली खेली जाती थी। लेकिन देश के नेताओं के लिए अब तो बारहों मास वसन्त है। वर्ष भर होली खेलते हैं,वर्ष भर कीचड़-फेंक-प्रतियोगिता समारोह का आयोजन चलता रहता है। जो कोई जितनी कीचड़ दूसरों पर फेंक सकता है, वही उसमें विजयी घोषित किया जाता है। और ये भी आप अच्छी तरह जानते होंगे कि इस समय पंच वर्षीय वसंत-समारोह के आयोजन की तैयारियाँ बड़े जोर -शोर से चल रही हैं। दूसरों को कीचड़ से आपादमस्तक सानने के लिए कीचड़ आयातित भी किया जा रहा है। बस सामने वाला ऐसा हो जाए कि चेहरा पहचानने में भी न आए और देखने वाले सराहना भरे स्वर में कह उठें कि वाह! क्या कीचड़ उछाली है ! क्या होली खेली है! ये कीचड़-उछाल पंच वर्षीय समारोह बड़े -बड़े भाग्यशालियों को ही मिल पाता है। अपनी -अपनी रोटी सेंको और कीचड़ -होली का आनन्द लो। जो आनन्द गुझिया पापड़ में नहीं, वह इन कड़कदार रोटियों में मिल जाता है। जो परमानंद की प्राप्ति अबीर, चंदन और और गुलाल में संभव नहीं, वह दहकती, महकती,चहकती, लहकती, फुदकती, कुदकती कीचड़ में मिल जाता है। कीचड़ की महक सारे वातावरण को व्याप्त करती हुई सकल दिगदिगन्त में छा जाती है। इस समय पुलवामा की आग में रोटियाँ सेकने का अवसर मिला है, तो कोई क्यों पीछे रहे। जब आग ठंडी ही हो जाएगी तो ये सुनहरा अवसर बार -बार मिल सके, इसका क्या भरोसा? इसलिए :
सेंक  सको तो सेंक लो,
रोटी     गरमा      गरम।
सेंक  न पाया जो अभी,
उसके    फूटे    करम।।
उसके     फूटे     करम,
बाद  में मत पछताना।
भर   लो     अपने   पेट,
गरम   रोटी  ही खाना।।
बार - बार   आते  नहीं ,
ऐसे     अवसर     नेक।
अवसर आया चूक मत,
गरम    रोटियाँ    सेंक।।

💐शुभमस्तु !
✍लेखक ©
🏹 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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