दूसरों पर कीचड़ उछालना मानव का एक अनिवार्य धर्म है। इस धर्म का निर्वाह और पालन देश में प्रमुखता से किया जा रहा है। क्या आम क्या खास! क्या अधीनस्थ क्या बॉस! क्या सामान्य क्या हास! क्या अंधकार क्या उजास! सारे हालात सारे प्रयास - बस दूसरों पर कीचड़ उछालने के ही रहते हैं। ये अलग बात है कि हम कभी कुछ नहीं कहते हैं। बस कीचड़ के दाग -धब्बे देखते रहते हैं। सबकी सहते हैं।
कीचड़ उछालना एक ऐसा प्रयास है कि हम ये कभी नहीं देखते कि हमारे दामन पर कितने दाग-धब्बे भरे हैं।इस कला को हमें अपने वरिष्ठों से सीखना पड़ता है। जब हमारे बड़े-बड़े आदरणी, सम्माननीय, माननीय इस क्षेत्र में शोध-परियोजनाएं चला रहे हों, तो हमारा धर्म है कि उनसे कुछ तो सद्प्रेरणा ले ही ली जाए।
वैसे दूसरों पर कीचड़ उछालने में जिस आनन्द की अनुभूति आदरणीय "कीचड़-उच्छालक" को होती है, उसे साहित्य के किस रस में समावेशित किया जाए, ये एक विचारणीय बिंदु है। इसके लिए बहुत पहले ही हमारे साहित्यकारों ने नहीं, समाजशास्त्रियों ने जिस सुंदर रस की खोज की है, उसे 'निंदा रस' के नाम से सुशोभित किया जाता है।
अपने दामन पर लगा,
बटन बड़े मजबूत।
झाँके दामन और का,
निंदा रस अनुभूत।।
कीचड़ नित्य उछालना,
समझदार का काम।
हर्रा लगे न फिटकरी,
करो उन्हें बदनाम।।
राजनीति से सीखना ,
कीचड़ रोज़ उछाल।
समझ न आवे नीतिगत,
या करतूत कुचाल ।।
होड़ मची है पंक की,
कितना किसके पास।
जो निर्मल सच्चा हृदय,
राजनीति बकवास।।
बिन कीचड़ झांको नहीं,
राजनीति की ओर।
जो भाए परहित तुम्हें,
जनता समझे चोर।।
कीचड़ की सत सम्पदा ,
होती है अनिवार्य।
कीचड़ से मुँह धो चलो,
सभी सफ़ल हों कार्य।।
तुम उन पर छींटा करो,
मन -मन काली कीच।
तभी सफ़ल हो पाओगे,
राजनीति के बीच।।
मुँह बाँधे होती नहीं ,
राजनीति की बात।
मुँह की पिचकारी भरो,
कर लो कीचड़ - घात।।
कीचड़ के ही बीच से,
उगता पंकज फूल।
तुम्हें फूल के फूल हैं,
उनको हैं तिरशूल।।
कीचड़ नहिं तो फूल क्यों,
फल न मिले बिन फूल।
बिन फ़ल सेवा देश की,
वही धूल की धूल।।
इसलिए हमें अपने बरिष्ठ जनों से यह ज्ञान और गुर सीख लेने चाहिए कि इस विशेष सम्मान, पद,मान, धन-धान्य और समृद्धि के क्षेत्र में उतरना है, तो सिद्धान्त-सूत्र सीख ही लेने चाहिए। वैसे सपोलों को बिल में रेंगना, डसना और ग्रसना सिखाना नहीं पड़ता। फिर भी जितना अधिक ज्ञान मिल जाए भविष्य में काम आ ही जाता है।
आपको यह पता ही है कि अब कीचड़ मार होली का महापर्व आने में बहुत अधिक दिन शेष भी नहीं हैं। आज वसंत पंचमी का दिन है। सभी साधक अपनी-अपनी साधना द्वारा अपनी -अपनी पिचकारी में अधिकाधिक किचड़ें उछालने की प्रार्थना में तल्लीन हो गए होंगे। उस महा पर्व होली में कौन कौन रंगे जाएँगे।और कौन दूसरों के चेहरों पर कालिख पोतते हुए कहेंगें 'बुरा न मानो होली है।' होली में तो सब जायज है।फ़ागुन में तो ससुर भी देवर लागे।अब चाहे रँग डालें या कीचड़, चंदन गुलाल या अबीर। अब जिसकी झोली में जो होगा, वही तो डालेगा।
जाकी रही भावना जैसी।
बुरे भाव की ऐसी -तैसी।।
होली खेलो पंक-उछाल।
या फिर रोली चंदन डाल।।
स्वच्छकारिता काअभियान।
सबसे बड़े हमीं अभिमान।।
कुर्सी मेरी मैं गुड़ - चींटा।
कीचड़डालो बहुत सुभीता।।
महापर्व होली का आया।
क्या होगा मेरा मनभाया!!
बुआ जले या जले भतीजा।
अपना तो हर ओर सुभीता।।
हम तो होली ही खेलेंगे ।
'शुभम' पंक भी हम झेलेंगे।।
💐 शुभमस्तु !
✍🏼 लेखक/रचयिता©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
कीचड़ उछालना एक ऐसा प्रयास है कि हम ये कभी नहीं देखते कि हमारे दामन पर कितने दाग-धब्बे भरे हैं।इस कला को हमें अपने वरिष्ठों से सीखना पड़ता है। जब हमारे बड़े-बड़े आदरणी, सम्माननीय, माननीय इस क्षेत्र में शोध-परियोजनाएं चला रहे हों, तो हमारा धर्म है कि उनसे कुछ तो सद्प्रेरणा ले ही ली जाए।
वैसे दूसरों पर कीचड़ उछालने में जिस आनन्द की अनुभूति आदरणीय "कीचड़-उच्छालक" को होती है, उसे साहित्य के किस रस में समावेशित किया जाए, ये एक विचारणीय बिंदु है। इसके लिए बहुत पहले ही हमारे साहित्यकारों ने नहीं, समाजशास्त्रियों ने जिस सुंदर रस की खोज की है, उसे 'निंदा रस' के नाम से सुशोभित किया जाता है।
अपने दामन पर लगा,
बटन बड़े मजबूत।
झाँके दामन और का,
निंदा रस अनुभूत।।
कीचड़ नित्य उछालना,
समझदार का काम।
हर्रा लगे न फिटकरी,
करो उन्हें बदनाम।।
राजनीति से सीखना ,
कीचड़ रोज़ उछाल।
समझ न आवे नीतिगत,
या करतूत कुचाल ।।
होड़ मची है पंक की,
कितना किसके पास।
जो निर्मल सच्चा हृदय,
राजनीति बकवास।।
बिन कीचड़ झांको नहीं,
राजनीति की ओर।
जो भाए परहित तुम्हें,
जनता समझे चोर।।
कीचड़ की सत सम्पदा ,
होती है अनिवार्य।
कीचड़ से मुँह धो चलो,
सभी सफ़ल हों कार्य।।
तुम उन पर छींटा करो,
मन -मन काली कीच।
तभी सफ़ल हो पाओगे,
राजनीति के बीच।।
मुँह बाँधे होती नहीं ,
राजनीति की बात।
मुँह की पिचकारी भरो,
कर लो कीचड़ - घात।।
कीचड़ के ही बीच से,
उगता पंकज फूल।
तुम्हें फूल के फूल हैं,
उनको हैं तिरशूल।।
कीचड़ नहिं तो फूल क्यों,
फल न मिले बिन फूल।
बिन फ़ल सेवा देश की,
वही धूल की धूल।।
इसलिए हमें अपने बरिष्ठ जनों से यह ज्ञान और गुर सीख लेने चाहिए कि इस विशेष सम्मान, पद,मान, धन-धान्य और समृद्धि के क्षेत्र में उतरना है, तो सिद्धान्त-सूत्र सीख ही लेने चाहिए। वैसे सपोलों को बिल में रेंगना, डसना और ग्रसना सिखाना नहीं पड़ता। फिर भी जितना अधिक ज्ञान मिल जाए भविष्य में काम आ ही जाता है।
आपको यह पता ही है कि अब कीचड़ मार होली का महापर्व आने में बहुत अधिक दिन शेष भी नहीं हैं। आज वसंत पंचमी का दिन है। सभी साधक अपनी-अपनी साधना द्वारा अपनी -अपनी पिचकारी में अधिकाधिक किचड़ें उछालने की प्रार्थना में तल्लीन हो गए होंगे। उस महा पर्व होली में कौन कौन रंगे जाएँगे।और कौन दूसरों के चेहरों पर कालिख पोतते हुए कहेंगें 'बुरा न मानो होली है।' होली में तो सब जायज है।फ़ागुन में तो ससुर भी देवर लागे।अब चाहे रँग डालें या कीचड़, चंदन गुलाल या अबीर। अब जिसकी झोली में जो होगा, वही तो डालेगा।
जाकी रही भावना जैसी।
बुरे भाव की ऐसी -तैसी।।
होली खेलो पंक-उछाल।
या फिर रोली चंदन डाल।।
स्वच्छकारिता काअभियान।
सबसे बड़े हमीं अभिमान।।
कुर्सी मेरी मैं गुड़ - चींटा।
कीचड़डालो बहुत सुभीता।।
महापर्व होली का आया।
क्या होगा मेरा मनभाया!!
बुआ जले या जले भतीजा।
अपना तो हर ओर सुभीता।।
हम तो होली ही खेलेंगे ।
'शुभम' पंक भी हम झेलेंगे।।
💐 शुभमस्तु !
✍🏼 लेखक/रचयिता©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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