रविवार, 6 जून 2021

नाटक 🌱🌱 [ अतुकान्तिका ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

चलो कर ही लें

फ़िर एक बार

पौधे लगाने का नाटक,

खोल ही डालें अपने

उच्च ज्ञान के फाटक,

भूलकर सब कुछ

करें बस पर्यावरण पर त्राटक।


हाथ में ले लें

हरा यूकेलिप्टस ,शीशम

या पीपल का हरा -हरा पौधा,

जैसे रण क्षेत्र में स्टेनगन

लिए कंधे पर 

खड़ा हो एक योद्धा।


खोद रहे हैं मजदूर

बड़े -छोटे कुछ गड्ढे,

खड़े हैं पास में कुछ

जवान, बच्चे कुछ बुड्ढे,

मुस्कराते हुए 

रख रहे हैं गड्ढे में 

पारिजात का एक पौधा,

पर हमने उन्हें 

कैमरे की ओर मुस्कराते

बड़े धैर्य से देखा,

इतने में इशारा हुआ

पानी लाओ,

नाज़ुक है ये पेड़

धीरे-धीरे से गिराओ,

नौकर पानी गिरा रहा है,

नेता नज़र उठाए 

मुस्करा रहा है,

पौधे की ओर भला 

देखे भी कौन!

अगले दिन पानी 

लगाने के नाम पर

रह गए सब मौन।


पौधे लगा दिए गए,

रस्म अदायगी हो गई

पौधारोपण की,

मना लिया गया

पर्यावरण दिवस।


उसके बाद 

कितने जून पाँच,

कहते हुए

 नाटक का साँच,

निकलते गए,

 अब  वहाँ  न

पौधे थे  न गड्ढे।


काश यदि पौधे

पनप गए होते,

तो पर्यावरण प्रेमी

रह जाते सभी रोते-रोते,

पुनः अगले वर्ष 

नाटक कैसे  होता?

बनाना था जंगल,

किन्तु जंगल का

ऊसर कैसे होता!

घड़ियाली आँसुओं से

नेता जी क्यों रोता?

अपने कुर्ते की

सफ़ेद आस्तीन को

नेत्राम्बु से क्यों भिगोता!



🪴 शुभमस्तु !


०४.०६.२०२१◆१२.४५पतनम मार्तण्डस्य।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...