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✍️ शब्दकार ©
🪢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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कलाबाजियां शब्द की,करते चतुर सुजान।
कोई समझे या नहीं,फ़िर भी उनकी शान।।
वे समझें वे ही लिखें,काव्य बड़ा ही गूढ़।
आम समझ से दूर है,नहीं समझते मूढ़।।
केशव को वे कह रहे,कठिन काव्य का प्रेत।
शब्दकोष लें हाथ में,समझें कविता -हेत।।
रामचरितमानस लिखा,कविवर तुलसीदास।
घर-घर में जनप्रिय बना,सरस् सुगंध सुवास।
भाषा, शैली ,शब्द का,हुआ समन्वय खूब।
रामकथा व्यापक हुई,ज्यों अवनी की दूब।।
मधु झरता है शब्द से,शब्द धनुष - टंकार।
शब्द सुमन-से उर लगें, शब्द हृदय के पार।।
कुछ विशेष के ही लिए,लिखता जो कवि छंद
आम सुजन का हित नहीं, उर वातायन बंद।
सहज बनें सबके लिए,कृत्रिम नहीं विशेष।
जन- जन के उर में बसें,रखें नहीं विद्वेष।।
सद सुगंध देते नहीं, ज्यों कागज़ के फूल।
कविता वह निर्गन्ध है,जो मरमर की धूल।।
कवि कोई नेता नहीं, दुर्लभ की संतान।
जनहित की कविता करे,सबसे वही महान।।
मत बनिए पाषाण- से,बनिए वेला फूल।
बिखरे गंध सु-भाव-सी, नहीं रोपिए शूल।।
ज्ञान- वमन जो कर रहे, वे कविता से दूर।
कालिदास समझें स्वयं,निज गुरूर में चूर।।
भाव - नदी खारी नहीं, होती लें यह जान।
शब्दों की खिलवाड़ की,नहीं दिखाएँ शान।।
सूरदास, तुलसी हुए, जन्मे दास कबीर।
भावों की सरिता बही,बनकर अमर लकीर।।
'शुभम'सहज कविता करें,बहा भाव रसधार।
शब्दों से खेलें नहीं, बने न रचना भार।।
🪴 शुभमस्तु !
२७.०६.२०२१◆२.०० पत नम मार्तण्डस्य।
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