सर्वश्रेष्ठ साहित्य 📒
[ व्यंग्य ]
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✍️ लेखक ©
☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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सोना कम से कम लोगों के पास कम से कम मात्रा और अधिक महत्त्व की वस्तु है। संभवतः इसीलिए उसका मूल्य भी अधिक से अधिक है।इसी प्रकार संसार में पाई जाने वाली अनेक वस्तुएँ, पदार्थ, व्यक्ति ,कम से कम होने पर अधिक पूज्य और महत्त्व के शिखर पर विराजमान दिखाई देते हैं। जैसे : नेता ,साधु,डाकू, अधिकारी ,हीरो ,हीरोइन, क्रिकेट प्लेयर,पुलिस आदि।
साहित्य भी एक ऐसी ही वस्तु है,जिसका महत्त्व बढ़ाने औऱ उसका बाज़ार चमकाने के कुछ विशेष सूत्र,सिद्धान्त और फॉर्मूले हैं, जिनके आधार पर रातों - रात एक बड़ा साहित्यकार बना जा सकता है औऱ अपना नाम साहित्य के इतहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित कराया जा सकता है।
यदि साहित्य सरलता से सबकी समझ में आ गया ,तो उसे उच्च कोटि की श्रेणी में नहीं माना जा सकता। इसलिए सरल भाषा -शैली में लिखा गया ठीक नहीं माना जाता । साहित्य के धुरंधर विद्वान ,समीक्षक और रचनाकार उस साहित्य को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं ,जो कुछ 'विशिष्ट जन' के ही पल्ले पड़े, सबकी समझ में न आए। सबकी पहुँच में आ गया ,तो लौकी, तोरई की तरह सस्ता हो जाएगा, (यद्यपि लौकी ,तोरई भी अब इतने सस्ते नहीं हैं ,जितना उन्हें कह दिया जाता है ।एक कहावत ही सही।) बाकी लोगों के सिर के ऊपर होकर ऐसे उड़ जाए, जैसे ड्रोन कैमरा ऊपर ही ऊपर निकल जाता है ,पर आम आदमी नहीं समझ पाता कि यह छोटा - सा हवाई जहाज क्या खेल खेल रहा है!
गोस्वामी तुलसीदास को ये सूत्र पता ही नहीं था कि वे ऐसा साहित्य - सृजन करते ,जो सबके पल्ले ही नहीं पड़ता। वे सौभाग्यशाली थे कि लोकभाषा अवधी औऱ ब्रजभाषा में लिखकर भी जन जन के प्रिय ही नहीं हो गए ,वरन लोक समाज और प्रबुद्ध वर्ग सबने उन्हें अपने सिर पर बैठाया । क्लिष्ट साहित्य - सृजन साहित्यकार के महत्त्व को कई गुणा अधिक बढ़ा देता है। जब तक कविता को समझने के लिए किसी साहित्यकार को भी शब्दकोश की शरण में न जाना पड़े ! वह साहित्य ही क्या और वह साहित्यकार ही क्या ! क्लिष्ट साहित्य लिखने से साहित्यकार का महत्त्व बढ़ता है। यदि सबकी समझ में आ गया तो उसे 'सस्ती लोकप्रियता 'ही मिलेगी। लेकिन लोकप्रियता जब तक कठिनाई से न मिले मँहगी न हो ,तब तक उसका कोई महत्त्व नहीं।
इसलिए कुछ साहित्यकार जानबूझकर शब्दकोश खोलकर काव्य - सृजन करते हैं,ताकि उसे समझने के लिए भी शब्दकोश खोलना पड़े औऱ शब्दकोश सबके पास होता नहीं, इसलिए उस साहित्यिक और साहित्य का महत्त्व बहुत उच्च तापमान पर पहुँच कर उसे राज्य औऱ सियासती सम्मान प्रदान करने में विशेष महत्त्व बढ़ा देता है। ऐसे साहित्यकार अपने को अपने आप ही विशिष्ट वर्ग की श्रेणी में आगणित करने लगते हैं ,फिर हमारी आपकी क्या हिम्मत कि एक सोपान भी नीचे स्थापित करने की पहल करें? इससे उनके अहंकार का दमन होता है ,और वे अपने अहं के लेबल से एक सीढ़ी क्या एक मिलीमीटर भी कम नहीं दिखना चाहते।
यद्यपि साहित्य की पुरानी परिभाषा(सहितस्य भाव:इति साहित्यम) के अनुसार साहित्य वही है ,जो जन- जन का हित करने वाला हो। किन्तु तथाकथित 'विशिष्ट औऱ क्लिष्ट साहित्य' भले ही जन -जन का कल्याण न करे ,(जब समझ में ही नहीं आएगा, तो कल्याण कैसे करेगा ? ये कोई एलोपैथी की टेबलेट तो है नहीं , जो उसका विज्ञान न जानने पर भी लाभ न करे। वह अवश्य करेगी।) परंतु नेताओं के मक्खन लगाने के बाद राष्ट्रीय पुरस्कार दिलवाकर ,सवा लाख का चैक मिलवाकर उस "विशिष्ट" का 'विशिष्ट' कल्याण अवश्य करती है। बस आना चाहिए ,मक्खन लगाने का विज्ञान और सही 'फॉर्मूला' !
जो क्लिष्ट ,दुरूह और असामान्य को भी समझ ले , वह भी विशिष्ट ही होता है।क्योंकि इस चंचल संसार में सब चीजें सबके लिए नहीं बनी।ढाबे की टूटी हुई मेज पर पी गई चाय औऱ अख़बार का नाश्ता जहाँ दस रुपये में हो जाता है , वही चाय (अथवा उससे घटिया चाय) फाइव स्टार होटल में सैकड़ों रुपये में पड़ती है औऱ पीने वाला खुशी से मूँछों पर ताव देते हुए देता भी है , अंततः वह कोई आम आदमी थोड़े ही है। वह वशिष्ट है।यही उसकी औकात है। भला किसी 'ऐरे गैरे नत्थू खैरे' में वह दम कहाँ ?जो दस की चाय सौ में पी सके, जहाँ अख़बार को छूने के भी पूरे पैसे वसूल लिए जाएँ ! 'विशिष्ट' औऱ 'सामान्य' में यही अंतर है।
आइए हम भी ऐसे ही 'विशिष्ट'साहित्यकार बनकर क्लिष्ट और दुरूह साहित्य का सृजन करें। अब तो आपको मँहगा शब्दकोश भी क्रय नहीं करना है। बस दस हजारी स्मार्ट फोन खोलिए औऱ गूगल बाबा की शरण में जाइए औऱ विशिष्ट साहित्य सृजन कीजिए , चाहे विशिष्ट समीक्षक बनिए अथवा जो चाहे सो कीजिए।आपका नाम साहित्य के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित हो ही जायेगा औऱ आप केशव, कालिदास जैसे महान कवियों की पंक्ति में खड़े दृष्टिगोचर होने लगेंगे। 'विशिष्टों' के द्वारा आम को चूसे जाने की परम्परा कोई नई नहीं है।
🪴 शुभमस्तु !.
२५.०६.२०२१◆१०.४५आरोहणम मार्तण्डस्य।
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