◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
✍️ शब्दकार ©
🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
उदर,वंश, निज जाति की,चिंता में रत लोग।
राष्ट्र - धर्म कैसे निभे, सबसे पहले भोग।।
जाति, वर्ण के भेद से , टूट रहा है देश।
राष्ट्र - धर्म कैसे निभे,दूषित उर - परिवेश।।
योग - दिवस की रस्म में,डूब गए आकंठ।
राष्ट्र - धर्म कैसे निभे, योगी, भोगी, लंठ।।
एक दिवस है योग का,शेष सूपड़ा साफ़।
राष्ट्र - धर्म कैसे निभे,रोग न करता माफ़।।
मैं ऊँचा सब नीच हैं,अहंकार का रोग।
राष्ट्र - धर्म कैसे निभे, खंड - खंड हैं लोग।।
चार बैल मति - फूट में,फूटे उनके भाग।
राष्ट्र - धर्म कैसे निभे,डसे जा रहे नाग।।
चार वर्ण बदरंग हो,खंड - खंड मति भिन्न।
राष्ट्र - धर्म कैसे निभे,मति चारों की खिन्न।।
छिलका लिपटा संतरा,बाहर से है एक।
राष्ट्र-धर्म कैसे निभे, फाँकें भिन्न अनेक।।
टर्र - टर्र सबकी पृथक, नहीं एक संगीत।
राष्ट्र - धर्म कैसे निभे,मिले न मन का मीत।।
झूठी, थोथी एकता, का करते गुणगान।
राष्ट्र - धर्म कैसे निभे,नेता यहाँ महान।।
मत,सत्ता,पदवी मिले,यही 'शुभं'शुचि मन्त्र।
राष्ट्र - धर्म कैसे निभे,ऐसा यह जनतंत्र।।
🪴 शुभमस्तु !
२१.०६.२०२१◆११.००आरोहणम मार्तण्डस्य।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें