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✍️ लेखक ©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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एक प्राचीन उक्ति बहुत प्रसिद्ध है : ' जीवः जीवस्य भोजनम ' ।यों तो प्रत्येक जीव सुरक्षित रूप से जीने के लिए जीवन - संघर्ष करता है। करना भी चहिए। क्योंकि 'जीवन ही संघर्ष है।' और 'संघर्ष ही जीवन है।' फिर क्यों न उसे जीने के निरंतर जूझना पड़ेगा! 'जीवः जीवस्य भोजनम' कथन के आधार पर ही लोकोक्ति बन गई कि 'हर छोटी मछली बड़ी मछली का आहार है।' यह मात्र एक कहावत ही नहीं ,प्रत्यक्ष रूप में देखा भी जाता है।
संसार में कुछ जीव ऐसे भी हैं ,जिनमें अपनी संतान के प्रति भी मोह ममता नहीं होती। जैसे सर्पों की कुछ प्रजातियों में मादा साँप अपने ही अंडे बच्चों को खा जाती है।इसी प्रकार बहुत से अन्य जीव भी हैं ,जो अपनी औरस संतान को अपना आहार बना लेते हैं।शेर,चीते,हिरन, खरगोश आदि को अपना आहार बनाते हैं। चूहा बिल्ली का आहार है। मांसाहारी जीव यदि जीव को खाते हैं,तो यह उनकी प्रकृति के अंतर्गत है।किंतु जो जीव अपनी प्रकृति के विरुद्ध आहार करता है ,उसकी क्या कहिए। ऐसे जीवों में मनुष्य का स्थान सबसे ऊपर है। यद्यपि जीव विज्ञान के सिद्धान्त औऱ दाँत , आँत आदि की रचना प्रणाली के अनुसार मनुष्य एक शाकाहारी जीव है, किन्तु आज सारा संसार जानता है ,क्या कुछ भी ऐसा है ,जो उसकी आहार -सूची में शामिल न हो। अपने ही पड़ौसी देश चीन में कुत्ते ,बिल्ली, गधे ,घोड़े, बिच्छू, साँप, चमगादड़ ,मेंढक और न जाने क्या - क्या जीव उसकी रसना के ग्राहक हैं।
यह तो हुई अन्य जीवों औऱ मनुष्य के सामान्य आहार की बात।सबसे बुद्धिमान औऱ प्रज्ञावान समझे जाने वाले आदमी ने अपने ही तरह के आदमी को भी खाने से नहीं छोड़ा है। वह अपने अस्तित्व को बचाने के लिए मनुष्य को ही खा रहा है।
बड़ी मछली के द्वारा छोटी मछली को खाने की बात कहना कोई कहावत मात्र नहीं है। इसी प्रकार अपनी अभिजात्यता के नशे में झूमता हुआ मानव भी नहीं चाहता कि उसके सामने कोई दूसरा जिंदा रहे। बड़ा नेता छोटे नेता के पर काट कर उसे ऊँची उड़ान भरने के लिए रोक रहा है।यदि उसका स्तर औऱ लोकप्रियता बढ़ गई तो उसकी सत्ता और आसन छिन सकता है।इसलिए समय - समय पर अपनी कर्तनी से उसके पंख कतरता रहता है। अधिकारी, कर्मचारी, अमीर, कवि , साहित्यकार सभी अपने से छोटे के प्राणों के ग्राहक बने हुए हैं। वे नहीं चाहते कि कोई भी उनके समकक्ष हो अथवा उनसे आगे बढ़ सके।इसलिए वे उन्हें हतोत्साहित करने, उन्हें हेय बताने, उनकी नैतिक हत्या कराने और कभी - कभी जैविक हत्या कराने से भी नहीं चूकते। अपने ही भाई- बंधु को मारकर अथवा मरवा कर उसकी लाश पर अपनी विलासिता की ऊँची मंज़िल का निर्माण करना ही उनका 'पवित्र' ध्येय है। एक देश दूसरे को खाना चाहता है। एक वर्ग दूसरे वर्ग को, तथाकथित उच्च वर्ण अपने से नीचे के वर्गों को गाजर - मूली की तरह खा जाने को आतुर हैं। नतीजा है जातीय,मज़हबी दंगे ,सड़कों पर खून - खराबा, नगर- गांव में अत्याचार, ग्राम प्रधानों के द्वारा विरोधियों की हत्याएँ, नेताओं के द्वारा नेताओं के ऊपर अनैतिक आरोप ,(जैसे कि वे सब गौमाता के दूध के धुले हुए हैं।), दूसरे की मां बहनों के साथ दुराचार ,बलात्कार, अपहरण, रिश्वत देकर वोटों को खरीदना, ये सभी मानव के द्वारा मानव के आहार के लाखों उदाहरण हैं। वाह रे! प्रज्ञावान मानव , तू धन्य है। मुखौटों के अंदर बेशर्म भी है। धर्म के नाम पर अधर्म की खेती यदि कहीं होती है ,तो वह मानव मात्र के द्वारा ही होती है। मात्र मानव के द्वारा ही होती है। पशु-पक्षी धर्म का ढोंग नहीं करते। इंसान कपड़ों के भीतर भी उतना ही नंगा है ,जितना अपने हमाम में।
आदमी को जंगल के हिंसक जानवरों से उतना खतरा नहीं है ,जितना एक पड़ौसी को दूसरे पड़ौसी से, एक वर्ण को दूसरे वर्ण से , एक नेता को दूसरे नेता से, एक धर्म को किसी दूसरे धर्म/मज़हब से, एक दल को दूसरे दल से, सरकारों को विपक्ष से, विपक्ष को सरकार से अपने अस्तित्व का भयंकर ख़तरा है। कोई शांति औऱ संतोष से जिए तो कैसे जिए ! आदमी के बड़े -बड़े हिंसक जबड़े मानव जाति को लील जाने के लिए हर समय तैनात हैं। अब मानव और पशुओं में कोई अंतर ही समझ में नहीं आता । वह धर्म का लबादा ओढ़े हुए है, पशु बेचारे देह से भी नग्न औऱ बुद्घि से भी नग्न। इसीलिए पहले के लोग कह गए हैं :'आदमी पहले पशु है ,बाद में मनुष्य।' पर मेरी मान्यता है कि मानव मानवत्व के खोल में पशुओं से भी अधिक पतित औऱ हेय है। पशु आदमी की तरह ढोंग तो नहीं करते ।वे जैसे हैं ,वैसे ही हैं। औऱ देखें उधर वे बड़ी- बड़ी मछलियाँ मगरमच्छ बन गई हैं ,औऱ उनके जबड़ों में , अमाशय में , आँत में यहाँ तक कि मल मूत्र में भी मानव औऱ उसके अंश ही हैं।
🪴 शुभमस्तु !
२५.०६.२०२१◆७.३०
पतनम मार्तण्डस्य।
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