पराशुराम भी धाकड़ भी,
आलू भी औऱ पापड़ भी।
हाथ में फरसा लिए हुए,
नहीं मारते झापड़ भी।।
पिंक सिटी में दुर्ग बड़े,
धाकड़ भाई वहीं खड़े।
शायद उनके मन थी,
खाने हैं मुझे दहीबड़े।।
जयगढ़ और आमेर किला,
ऊँचे चढ़कर आन मिला।
शीशमहल के दर्शन का,
धाकड़ जी से लाभ मिला।।
हवामहल की हवा मस्त है,
किले में खासी बड़ी गस्त है।
स्वर्ण जटित मंदिर कितने हैं,
थककर तन की दशा पस्त है।
धाकड़ जी ने ज़ू दिखलाया,
भालू शेर देख गुर्राया।
तू हमको जानता नहीं!
धाकड़ ने कोड़ा चमकाया।।
राजमन्दिर की सैर निराली,
हेममालिन नृत्य दिखाती।
देख भंगिमा धाकड़ जी ने ,
मूँछे अपनी और तना लीं।।
"शुभम" पूर्ण अनुरोध आपका
मौसम है ये घुटन ताप का।
जयपुर सैर करायेंगे कब,
काव्य रचा माँ के प्रताप का।।
💐शुभमस्तु!
©डॉ. भगवत स्वरूप" शुभम"
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