एक शाख
और गिरी,
कहते थे
पहले से ही सब
बुरी -बुरी,
सियासत को
रपटीले पेड़ - सी।
ऐसा भी क्या
तिकड़में छद्म,
बिना सोचे समझे
आगे बढ़ाना
अपने कदम,
सफल होते नहीं
सब कहीं,
अंधी भूख
सत्ता की,
खोकर निज विवेक,
कहीं तो
बन जा नेक,
पर संतोष नहीं।
वैसे भी
सियासत में
सत नहीं
सुगति नहीं,
बात सब
मन माने की
मनमानी की,
छद्म बयानी की,
जाना पूरब
तो बताना पश्चिम,
फहराना सदा
झूठ का परचम,
सियासत की
यही असल कहानी रही।
देशसेवा के
नाम पर,
भर ही लेना है,
अपना घर,
न इधर
न उधर,
बेटे - बेटियाँ
यहीं पूरा भारत,
भले ही हो
दशा
देश की गारत,
उद्घाटन
मुहूर्त
भाषण आश्वासन,
घड़ियाली आँसू,
भाषण धाँसू,
मात्र स्वार्थ,
आमजन के वास्ते
सब अकारथ !
जनता बिलखती
बिलबिलाती
चीखती चिल्लाती रही।
हो ही गया,
'गर देश का उद्धार,
कौन पूछेगा
जाएगा
राजनेता के द्वार,
सरकती हुई
शनैः शनैः सर कार,
लुभाते बहकाते
बहलाते रहो,
देकर झुनझुने,
बजाते बजवाते रहो,
खोखले वादों
नारों की
सदा बहार रही,
'शुभम' यह बात
यों ही न कही ।।
💐 शुभमस्तु !.
✍रचयिता ©
⛱ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
28.11.2019 ◆10.30 पूर्वाह्न।
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