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गदह - पचीसी लग गई,
चलो सँभल कर चाल।
डगमग - डगमग जो चले,
हो जाए बेहाल ।।1।।
गदह - पचीसी कह रही ,
मूरख सब संसार।
मैं ज्ञानी सबसे बड़ा ,
चढ़ा बुद्धि का ज्वार।।2।।
सींग निकलने जब लगे,
वृषभ बड़ा बेचैन।
दीवारों से भिड़ गया,
उठा मुंड चल नैन ।।3।।
गदहा घोड़े से कहे,
तू मूरख अज्ञान।
तू क्या जाने जगत को,
मैं ही श्रेष्ठ महान ।।4।।
गदह - पचीसी में करें ,
उलटे - सीधे काम।
नाम नहीं तो क्या हुआ,
हों चाहें बदनाम।।5।।
तीस बरस के बाद में,
गदहा होता अश्व।
अकल ठिकाने पर लगे,
दिखे न कोई ह्रस्व।।6।।
अब का बिगड़ा अटल है,
सम्भव नहीं सुधार।
गदहा गदहा ही रहे,
धोय गंग की धार।।7।।
बना गधे से अश्व जो,
न हो यौनि का पात।
पड़े दुलत्ती अश्व की,
नहीं गधे की लात।।8।।
बिगड़ें या बन लें अभी,
यही सुनहरा काल।
गदह - पचीसी कह रही,
उठो गिरो या ढाल।।9।।
बनने थे जो बन चुके ,
क्या बिगड़ेंगे और।
गदह - पचीसी जा चुकी,
आया अगला दौर।।10।।
अष्टादश की आयु से,
बीत जाएँ जब सात।
'शुभम ' पचीसी गदह की,
तब समझें शुभ बात।।11।।
💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम '
18.11.2019 ◆3.00 अपराह्न।
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