गुरुवार, 21 नवंबर 2019

ढाक के पत्ते तीन! [ अतुकान्तिका ]


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साँझ सुरमई
भोर सुनहरी 
त ब होती थीं,
अम्बर
 सकल दिशाएँ
सुख पल -पल
 बोती थीं ,
अब तो 
काला धुआँ
घेर ले रहा
दिशाएँ,
किसको दें दोष,
प्रशासन 
या किसान को,
या अपने 
भारत महान को!!

स्वार्थ लिप्तता का
घेरा भी
बड़ा भयंकर,
दम घुटता 
जन -जन का,
बढ़ते रोग प्रलयंकर,
क्या है 
यह कोई पूर्वाभ्यास,
भविष्यत के हमलों का,
मुरझाए 
गमलों के पौधों का
मरते जन -जन का?

घर से बाहर
कर्मक्षेत्र में
जाना दूभर,
घर पर रहना
हुआ कठिनतर,
पानी निकला
सिर के ऊपर,
पहले से ही
'सुखद -सियासत'
फैलाती थी
महक मलयवत,
अब तो 
सब चुप,
मौन साधकर
अखबारी बयान
देते हैं,
मीठी बातों से
जन -जन का
दुःख हर लेते हैं,
आँखों के आँसू में
रस भरते हैं,
भले लोग
बीमारी से
पल -पल मरते हैं।

जब जलता है 
प्यार,
पराली चाहे कह लो,
क्या बचना है?
राष्ट्रभक्ति की
ये कैसी 
संरचना है?
धूम -अश्रु के
विकट प्रदूषण से
मेरे महान 
भारत का 
ये कैसा
 स्वर्णिम सपना है?
बिना विचारे
जो मन आए
सब करना है!
जो बोले 
विपरीत 
सत्य किसी के
खटिया उसकी
पड़ी हुई है,
 खड़ी करना है।

प्यार जला
धुआँ निकला
कड़वा ज़हरीला
गीला नीला
विकट हठीला,
साँसों द्वारा
आँख नाक आनन में
घुसकर
बना गन्दीला,
इधर भी हीला
उधर भी हीला,
समाधान 
वही बस एक
ढाक के पत्ते तीन,
प्रदूषण - संक्रमण
महा मलीन, 
रहा जीव -जन के
प्राणों को 
छिन -छिन छीन,
नहीं मानते तो
निकलो बाहर
कर लो यक़ीन।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
☘ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

21.11.2019●6.00अप.

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