बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

मेरा देश:एक खेत [ व्यंग्य ]

              मेरा देश एक विशाल खेत है। खेत में क्या होता है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। देश के अन्य खेतों की तरह इस खेत में भी खेती ही होती है। जो आम किसान हैं , वे खेती करते हैं और अपनी आजीविका का पालन करते हुए अपनी दैनिक रोज़ी - रोटी कमाते हैं।लेकिन उन कमाने वाले किसानों के उत्पादन के आँकड़े उन्हें पता नहीं होते। उनके आंकड़ों के उत्पादनकर्ता कुछ और महा किसान हैं , जिन्हें उन्हें टी वी , अखबारों , सोशल मीडिया या लोकतंत्र के चौथे अति मजबूत खंभे पत्रकारिता और पत्रकारों को उद्घाटित करने का अधिकार है। आम किसान तो बता ही नहीं सकता कि क्या उत्पादन हुआ ? कैसे हुआ ? किसके लिए हुआ ? बस पैदा करते जाओ। इसके अतिरिक्त उसका और कोई भी दायित्व नहीं है। उत्पादन के बदले उसे वेतन देकर , बोनस से सम्मानित करके , महंगाई भत्ता देकर साल में एक दो बार खुश कर दिया जाता है।

            ऐसा इसलिए है कि मेरे देश में गेहूँ , चावल , गन्ना , धान की ही तरह आँकड़ों की भी खेती की जाती है । लेकिन इसके महा-किसान या कहिए जमीदार विधान सभा या लोक सभा में बैठकर ही खेती कर लेते हैं। जिनकी फ़सल जब पकती है तो उसकीसाप्ताहिक,मासिक तिमाही , छमाही और सालाना रिपोर्ट टी वी और अखबारों में आ ही जाती है। लेकिन मज़े की बात ये भी है कि इन आँकड़ा - खेती के उत्पाद की मात्रा में एक- रूपता नहीं होती। वह अलग -अलग मंचों और अवसरों पर बदल जाती है।

                  आँकड़ों की खेती से देश के विकास का जायजा लिया जा सकता है। यह आँकड़ों की खेती का ही तो परिणाम है कि महा किसानों ने बताया है कि शिक्षा के क्षेत्र में केरल देश में प्रथम स्थान पर और उत्तर प्रदेश फिसड्डी स्थान पर है। इन आँकड़ों की खेती से ही हम अपनी मिट्टी पलीद करने से भी नहीं चूकते। अरे भाई ! यथार्थ, सच्चे आँकड़ों का जो तकाज़ा है! अब जिस - जिस किसान ने मिट्टी पलीद की , वे उसके लिए जिम्मेदार हैं। कम्प्यूटर - आधारित इन आँकड़ों की खेती के दुःखद परिणाम हमें हतोत्साहित तो करते ही हैं।

              खेत की उपयोगिता केवल खेती करने में ही नहीं है। जो महा - महा- महा किसान हैं, वे प्लानिंग और प्लाटिंग करके बाकायदा 'वसुधैव कुटुम्बकम' का पवित्र आदर्श स्थापित करते हैं। और वे उस स्तर की खेती करते हैं , कि जब उनका खलिहान हो जाता है , तो इस देश में खाली -स्थान ही दिखाई देता है , किन्तु विदेश में वह ऐसा भर जाता है कि इस देश के आम जन और आम किसान तो भौंचक्के ही नहीं , ठगे से महसूसते रह जाते हैं। वे केवल आम किसान की तरह आलू ,गोभी,शलजम, टमाटर उत्पादित नहीं करते , वे सीधे नोट की ही खेती करते हैं। जो काम नोट बनाने के लिए किया जाए , वह तो एक दकियानूसी बात हुई और नितांत ही पिछड़ेपन की निशानी हुई । खेती करो तो ऐसी कि खेत में नोटों की ही फ़सल लहलहाए।उसकी जड़ों में आलू ,रतालू, मूली गाजर, ,शकरकन्द ,लहसुन, प्याज़ नहीं, सीधे नोट की पोटली ही क्यों न निकले? उनके पेड़ों पर मिर्च , टमाटर , भिंडी , बैगन की जगह नोट ही बरसें! तन रूपी तने पर कटहल नहीं नोटों की तिजोरियाँ ही न लटकने लगें !

               ये आधुनिक युग है। इसमें यदि परम्परागत ढंग से खेती की गई, तब तो हो गया! पचास पीढ़ियाँ कैसे बैठकर खाएँगी? बस ऐसा ही जतन करना है कि हर्रा लगे न फ़िटकरी रङ्ग चोखा ही आये! यदि देह से पसीना निकल गया और दो वक्त की रोटी भर का जुगाड़ हो सका तो क्या लाभ हुआ, किसानी करने से? आज बुद्धि और बुद्धिमानी का युग है। बुद्धि के द्वारा की गई खेती से लाखों गुना बेहतर औऱ मात्रा में भी अधिक उत्पादन होता है। सभी जानते हैं कि पैसे से पैसा बनता है। नोट से नोट बनता है। तो सिक्कों और कौड़ियों की खेती के बजाय सीधे नोटों की खेती क्यों न की जाए? ऐसे कुछ खेतों के नाम गिना देना भी समीचीन होगा , जहाँ पर इस प्रकार की नोट-खेती फल -फ़ूल रही है। वे खेत हैं :राजनीति का खेत , बैंक -लोन -खेत । उच्च पदासीन अधिकारियों का खेत।

                 इस प्रकार के कुछ महा -किसानों की जानकारी संसार को हो चुकी है।कुछ की खेतियाँ पर्दों के भीतर गोपनीय ढंग से चल रही हैं। जब फ़सल पककर महाकिसान की महा- तिजोरी स्विस बैंक में पहुँच जाती है। तब मूर्ख आम किसान या आँकड़ेबाज किसान की आँखें भुट्टे जैसी फ़टी की फ़टी रह जाती हैं ।अगले ही दिन अखबारों औऱ टी वी चैनलों पर बस इतनी ही चिल्ल् -पों शेष रह जाती है : ले गया ! ले गया ! ले गया !!! आम किसान सोचता ही रह जाता है कि क्या ले गया ? कौन ले गया? कहाँ ले गया? कैसे ले गया ? कितना ले गया ? अब उसके हाथ के पोरुओं में जितने निशान बने हैं , उतना गिनने की ही उसकी क्षमता है। इससे आगे के लिए तो कम्प्यूटर खंगालने पड़ेंगे। आँकड़ेबाज किसान अपने - अपने आयडिया से आँकड़े फिट करेंगे! जब ले जाने वाले को ही नहीं पता कि कितना ले उड़ा तो ये भला भोले आम किसान या आँकड़ेबाज- किसान क्या खाकर गणना करेंगे? वास्तव में मेरा देश एक विशाल देश है। जिसमें मॉडर्न खेती के महान खेतिहर हर - हर इंग्लैंड ! हर हर स्विट्जरलैंड ! का जाप कर रहे हैं। निरन्तर भजन -कीर्तन चल रहा है। मेरा देश वास्तव में महान है। इसकी महानता मेरी शान है। इस खेत में किसान ही किसान हैं। उन्नत औऱ आधुनिक खेती में ही जिनकी पहचान है। एक नहीं बड़े -बड़े यहाँ चतुर सुजान हैं।
 💐 शुभमस्तु !
 ✍लेखक ©
 🍏 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

 ♾◆◆♾◆◆♾◆◆♾
   

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...