गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

धन की धुन [अतुकान्तिका ]




धन की धुन
बजती निशिदिन
खनखन
रुनझुन
सुनता जन -जन
लगता 
सबका मन।

धन की धुन 
लगती कैसी
ज्यों प्रमत्त
प्रतिपल प्रतिदिन
जनगण जन -मन,
बढ़ती हर दिन,
कैसा विचित्र
मानव - मन??

हाथी घोड़े 
सोना चाँदी
घर मकान-
के साथ 
बनता 
मानव महान,
पाना ही पाना 
न कहीं दान?
फिर भी महान!
कैसी विडंबना
कैसा ये
विचित्र इन्सान।

धन की पूजा-
साधना निरंतर
उल्लू पर बैठीं
लक्ष्मी
धनतेरस 
दीपावली पर्व ,
वैभव पर रीझा
मानव 
फिर भी
मानव के प्रति
मानव ही दानव,
न हिंसक शेर
न वनमानुष।

कथनी भर को
संतोष का धन
सर्वोत्तम,
यथार्थ भी यही,
पर मानव तो बनाता
चूने का दही।

लक्ष्मी -वाहन 
बनना स्वीकार,
भले ही हो
धी का धुआँर,
पर -धन पर कुदृष्टि,
पर -शोषण की
दृष्टि,
पर - धन का
अपस्मार,
बेशुमार।

धन ही
मानक
मापक पैमाना,
ढँके धब्बे हज़ार,
सहस्रों प्रकार,
चरित्र का चित्र
पड़ता धुँधला,
जब होता
धन का हमला,
सूख जाता
चरित्र का गमला,
बस 
ला , ला और ला,
बन जाता  लाला,
भले हो 
अपना धन काला।

मन करता 
कामना काले की,
दीवाली होती है
श्वेत  उजाले की-
कुबेर धनदेवी
ए मानुष 
धनसेवी,
पुरुषार्थ है 
उत्तम धन,
देता 
अपरिमेय आनन्द,
उसका कन-कन ,
सार्थक धनतेरस
चरित्र स्वास्थ्य का
रक्षण
सर्वोत्तम धन

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🕯 *डॉ. भगवत स्वरूप
:शुभम।

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