धन की धुन
बजती निशिदिन
खनखन
रुनझुन
सुनता जन -जन
लगता
सबका मन।
धन की धुन
लगती कैसी
ज्यों प्रमत्त
प्रतिपल प्रतिदिन
जनगण जन -मन,
बढ़ती हर दिन,
कैसा विचित्र
मानव - मन??
हाथी घोड़े
सोना चाँदी
घर मकान-
के साथ
बनता
मानव महान,
पाना ही पाना
न कहीं दान?
फिर भी महान!
कैसी विडंबना
कैसा ये
विचित्र इन्सान।
धन की पूजा-
साधना निरंतर
उल्लू पर बैठीं
लक्ष्मी
धनतेरस
दीपावली पर्व ,
वैभव पर रीझा
मानव
फिर भी
मानव के प्रति
मानव ही दानव,
न हिंसक शेर
न वनमानुष।
कथनी भर को
संतोष का धन
सर्वोत्तम,
यथार्थ भी यही,
पर मानव तो बनाता
चूने का दही।
लक्ष्मी -वाहन
बनना स्वीकार,
भले ही हो
धी का धुआँर,
पर -धन पर कुदृष्टि,
पर -शोषण की
दृष्टि,
पर - धन का
अपस्मार,
बेशुमार।
धन ही
मानक
मापक पैमाना,
ढँके धब्बे हज़ार,
सहस्रों प्रकार,
चरित्र का चित्र
पड़ता धुँधला,
जब होता
धन का हमला,
सूख जाता
चरित्र का गमला,
बस
ला , ला और ला,
बन जाता लाला,
भले हो
अपना धन काला।
मन करता
कामना काले की,
दीवाली होती है
श्वेत उजाले की-
कुबेर धनदेवी
ए मानुष
धनसेवी,
पुरुषार्थ है
उत्तम धन,
देता
अपरिमेय आनन्द,
उसका कन-कन ,
सार्थक धनतेरस
चरित्र स्वास्थ्य का
रक्षण
सर्वोत्तम धन
💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🕯 *डॉ. भगवत स्वरूप
:शुभम।
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