शनिवार, 30 जनवरी 2021

श्वान-राग ! [ व्यंग्य ]


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✍️ लेखक © 

📙 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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                देखा ! फुस्स हो गई न! बड़े जोश से निकले थे डोला लेकर, किसानों के नाम का बड़ा झोला लेकर,हवा भरते गए गुबार के गुब्बारे में,मगर फुस्स हो गई बने थे इंडिया मेकर।भेड़ों के झुंड में भेड़िए घुस आए, भेड़ें भड़भड़ाती रहीं भेड़िए भर्राए, तीन बिलों की बात पीछे रह गई ,कानून की धज्जियाँ ही उड़ाते नज़र आए।

                 लोकतंत्रात्मक गणराज्य का उजला दिन ,काला कर दिया।लाल किले का तिरंगा मैला कर दिया, किसान बिलों में खालिस्तानी कहाँ से आ गए,अमन के सिपाहियों के अस्तित्व पर छा गए। हवा गुब्बारे में उतनी ही भरी जाती है, जितनी किसी गुब्बारे की क्षमता नापी जाती है।शांति के नाम पर अशांति, हिंसा ,खून -खराबा ,नियमों की धज्जियाँ उड़ाना कहाँ तक उचित था? विदेशी आतंकवादी अपनी रोटियाँ सेंकते रहे। मुफ्तखोर काजू, बादाम ,शराब की दावतें उड़ाते रहे।और उधर गुब्बारा फुस्स......हो गया। मुखौटे धारियों का मुखौटा हटा , वह नंगा हो गया।


               भौंक रहा था एक कुत्ता गली में।कुछ ही देर में देखा कि गली सैकड़ों कुत्तों की भौं- भौं की ध्वनि से गूँजने लगी।वे भौंकते रहे, भौंकते रहे ,और भौंकते रहे। जब वे कुछ देर तक भौंकते -भौंकते थक गए, तो किसी ने पूछा कि अरे स्वानो! बुड्ढे औऱ जवानो! इतनी देर से क्यों भौंक रहे हो। पता नहीं क्यों तुम सब दहकते खड़े हो। आख़िर किस बात की जिद पर अड़े हो। तब एक कुत्ता बोला :'ये भौंक रहा था ,इसलिए मैं भी भौंक रहा हूँ। तब उससे भी पूछा गया तो उसने किसी दूसरे की ओर इशारा किया कि ये भौंक रहा था ,इसलिए मैं भी भौंकने लगा। इसी प्रकार सभी कूकरों की ओर से यही उत्तर आया कि फलां को देखकर मैं भी भौंक रहा था। कारण किसी को पता नहीं।बस दूसरे कुत्ते को देखकर स्वान-राग शुरू कर दिया।उन्हीं 'कुक्कर - संघ' में कुछ भेड़िए भी पगड़ी बांधकर कूकर बन गए और स्वर में अपना स्वर भी मिलाने लगे। मेवा, किशमिस खाने लगे ।और अंततः जब वह दिन आया तो भांडाफोड़ हो गया। कुत्ता बना हुआ भेड़िया नग्न हो गया। 


             अरे ओ नादानो! हैवानों के साथ किस किसान की दाल गली है ,जो तुम्हारी ही गल जाएगी। यदि लाल किले पर पीला झंडा फहराने से दिल्ली फतह हो जाए तो ये इंडिया भी तुम्हारे नाम हो जाएगी? गणतंत्र दिवस , भारतीय संविधान का पवित्र दिवस को काला करने की तुम्हारी मंशा इतनी नापाक है , देश के प्रशासन को आभास भी होता ,तो इन कुत्तों की दौड़ का अंजाम कुछ और ही होता। क्या अब इस देश का संविधान कूकर और भेड़िए बनाएंगे? वे ही बागडोर थामेंगे , देश को फिर गुलाम बनाएंगे? 


         ये सबसे अधिक ज्ञानी हैं , अब क्या ये ही शासन चलाएंगे ? सही कहा गया है कि 'गधाऐ नौंन दऔ ,गधा कहै हिए की ऊ फोरीं।' सच यह भी है कि 'अनुचित साधनों से प्राप्त की गई उपलब्धि कभी सफलता देने वाली और स्थाई नहीं होती।' लेकिन कूकर में विवेक कितना ! कि दो रोटी के टिक्कड़ तक।उसे दो टिक्कड़ फेंक कर दो या चांदी की थाली में , कोई फर्क नहीं पड़ता। वह तो परमहंस है ! मान -अपमान से सर्वथा परे ? लेकिन अफसोस कि मानव देहधारी ! उसने अपने ही रक्षकों पर तलवारें भांज मारीं ? बहुत ही शर्मनाक औऱ निंदनीय है ये दुष्कृत्य! भारत के उज्ज्वल इतिहास में छब्बीस जनवरी दो हजार इक्कीस - पावन गणतंत्र दिवस के स्वर्णिम इतिहास में काले पृष्ठ के रूप में ये अनायास ही जुड़ गया है। और बचा है जिनकी आँखों में थोड़ा -सा भी पानी , वह इस पौष की ठंड में छुहारे - सा सिकुड़ गया है! 

 🪴 शुभमस्तु !

 २९.०१.२०२१◆४.५०पतनम मार्त्तण्डस्य। 

              

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