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✍️ शब्दकार ©
🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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कर्मों से ही है सृजन,कर्म कला का हेत।
कृषक कर्म करता नहीं,सूखेगा फिर खेत।।
सुबह जागते कीर सब, गाते कलरव गीत,
एक - एक दाना चुगें,पड़े धरा के रेत।
अपने परआश्रित रहें,सफल वही नरनारि।
पराधीन जो जी रहे, वे हैं पादप बेत।
बीज धरा में डालकर,सिंचन कर नित पोष,
रखवाली करना सदा, उसकी बाड़ समेत।
बया बनाती नीड़ को,देख ठौर जलवायु,
कला,करीना सीख लें,जब भी बने निकेत।
साँप बनाते बिल नहीं, रहते पर घर घेर,
साँप नहीं तुम नर बनो,निज संतति समवेत।
करे कलम अभ्यास जो,बनते कवि विख्यात,
पाहन घिसते रज्जु से,'शुभम'आज तू चेत।
🪴 शुभमस्तु !
१४.०१.२०२१◆४.००पतनम मार्त्तण्डस्य।
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