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✍️ शब्दकार©
🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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असमानता में निहित है
उद्देश्य प्रकृति का,
हाथ की
पाँच अँगुलियों की तरह,
कनिष्ठिका से लेकर
अंगुष्ठ पर्यंत,
सबके ही हैं
कार्य अनन्त,
अनामिका ,मध्यमा
और तर्जनी ,
खान-पान ,ग्रहण,
मुष्टिका ,सर्जरी,
टेढ़ी कर घी भी
बाहर निकालना,
बँटा हुआ है हर
काम को सँभालना।
नभगत सूरज चाँद
सबका पृथक- पृथक काज,
कोई विशाल कोई लघु
कोई तप्त अति गर्म,
कोई धारण किए
शीतलता का धर्म ,
किसी को दिन
किसी को मिली रात,
सभी देते हैं
जगत को
अपनी - अपनी
अमूल्य सौगात,
सभी आवश्यक हैं
संध्या, दिवस,
रात और प्रातः।
अनगिनत असंख्य तारे
अलग-अलग आकार,
अलग -अलग प्रकार वाले,
अपने -अपने निराले गुण,
असमानता में प्रमुदित
करते निज कार्य निष्पादन।
अलग -अलग
वृक्ष और लताएँ,
कितना आपको
विस्तार से बताएँ,
कोई आम तो कोई नीम,
कोई बबूल कोई
बरगद की तरह विस्तीर्ण,
पीपल ,शीशम या चीड़,
लगी है वन में
पेड़ों की भीड़,
जूही, बेला ,मोगरा ,चंपा ,जूही,
गेंदा, गुलाब,
कोई नहीं यूँ ही,
कोई समानता नहीं,
तुलना भी नहीं,
कमल हो या धतूरा,
सबके अपने
महत्त्व का है जमूरा।
एक आदमी को ही
असमानता से संतोष नहीं,
समान होने के लिए
उर में आग जलती रही,
ईर्ष्या, द्वेष ,घृणा ,वैर की,
आँधी ही चला दी उसने
नीचता के अंधेर की,
राम तो राम ही हैं
कृष्ण भी कृष्ण ही हैं,
कंस, कंस है,
रावण भी रावण ही है,
अपनी प्रकृति से
कोई बदला नहीं
तृण भर भी है,
फिर क्यों समानता की
आग लगाता है,
'शुभम' ये मानव
क्यों तांडव मचाता है,
क्यों अपने में
संतुष्ट न होकर,
अशांति फैलाता है।
🪴 शुभमस्तु !
२२.०१.२०२१◆६.००आरोहणम मार्त्तण्डस्य।
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