शनिवार, 30 जनवरी 2021

ढोल में पोल [ गीत ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️शब्दकार©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

 देखे   पापी   यहाँ    रहनुमा ,

लगते      दूध      धुले   सारे।

जनता  थर - थर काँप रही है,

दिखते   हैं   दिन  में     तारे।।


हृदय - वेदना   कही  न जाती,

सुनने    वाले     बहरे        हैं।

साँची   भी   कहने  वालों पर,

लगे   हजारों       पहरे     हैं।।

मत  का   तंत्र   देश में  फैला,

निर्धन    किस्मत    के   मारे।

देखे  पापी    यहाँ     रहनुमा ,

लगते     दूध    धुले    सारे।।


अन्न, दूध ,फल  का उत्पादक,

कृषक    सदा    से     बेचारा।

समझा  उसे न कोई अब तक,

बचा    खोखला    है   नारा।।

'जय किसान की' कहते नेता,

वे     बैठे      हिम्मत      हारे।

देखे   पापी   यहाँ    रहनुमा,

लगते    दूध      धुले   सारे।।


बिका मीडिया   राजनीति से,

जो   वह   कहती   गाना   है।

छलनी    में   दुह  रहे  दूध वे,

गाते    युगल    तराना    है।।

जाति -  भेद  में देश बाँटकर,

खाते    देश      बना     चारे।

देखे   पापी    यहाँ    रहनुमा ,

लगते       दूध    धुले   सारे।।


ठेकेदार     बुद्धि    के   नेता ,

समझें     हमें    अनाड़ी   हैं।

इनके  बिना  देश  रुक जाए,

चले  न    कोई   गाड़ी   है।।

'हम ही,हम ही,हम ही ईश्वर,'

इनके   सदा     चपल  नारे ।

देखे   पापी    यहाँ    रहनुमा ,

लगते    दूध      धुले   सारे।।


जनता   को  जड़  मान रहे हैं,

ख़ुद विकास - पुरुष अवतार।

विद्युत   की  धारा  बनकर वे,

करते   मानव   को  निस्सार।।

माल  और  माला   के स्वामी,

इनसे   विज्ञ     पुरुष     हारे।

देखे    पापी    यहाँ   रहनुमा ,

लगते    दूध       धुले   सारे।।


अत्याचार    नहीं   रुक  पाए,

रिश्वत   का    बाजार    गरम।

बलात्कार ,    नारी    बेचारी,

नित्य यहाँ, उनको  न शरम।।

भाषण  में   आदर्श    बचे हैं,

छिपे  यहाँ   विषधर    कारे।

देखे      पापी    यहाँ  रहनुमा , 

लगते  दूध     धुले     सारे।।


अजगर की कुंडली जटिल है,

जकड़ी   सारी     जनता   है।

जिसके   हाथों   में   है सत्ता ,

उतना  ही   वह   तनता  है।।

'शुभम' ईश ही रक्षक है अब,

कूप    हो   गए   सब  खारे।

देखे पापी      यहाँ    रहनुमा ,

लगते      दूध      धुले  सारे।।


🪴 शुभमस्तु !


२०.०१.२०२१◆११.५५ आरोहणम मार्त्तण्डस्य।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...