शनिवार, 30 जनवरी 2021

कवि होना संस्कार है! [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार©

🫐 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कवि कहना तो सहज है,पर कविकर्म दुरूह।

बनते  हिमगिरि से सदा, हैं माटी   के   ढूह।।


भाषा, चिह्न विराम की,समझ नहीं भरपूर।

ऐसे  कवि  रहते सदा, मद में चकनाचूर।।


उछल-कूद कपिवत करें, डाल-डाल उत्पात।

समझाएं  कवि को अगर,माने एक न बात।।


छंदबोध के ही बिना,कवि वे कपि स्वच्छन्द।

मनमानी  अपनी करें,मिले न रस  आनन्द।।


कवि बनना है तो करें,कवियों का सम्मान।

विद्वानों से सीख लें,करें न निज गुणगान।।


शुद्ध  वर्तनी    जानकर ,दें रचना  में  रोप।

जैसी   पौध  लगाइए, वैसी आए   ओप।।


शिक्षा  से  बनते सभी,शिक्षक वैद्य वकील।

कृपा करें माँ शारदा, भरती कवि की झील।।


कवि होना संस्कार है,संस्कृति काव्यस्वरूप।

पूर्व जन्मकृत पुण्य से,बंद पाप भावकूप।।


मुक्त  छंद के  नाम पर,लिखते ऊटपटाँग।

टोकें  तो  टेढ़े पड़ें, खाई   हो ज्यों   भाँग।।


अहंकार यदि शेष है,कवि न, मात्र नर मूढ़।

तुकबंदी करने लगे,स्वयं कहें कवि गूढ़।।


बिना कृपा माँ भारती,पंक्ति न आए एक।

'शुभं'विनत माँ चरण में,लेकर पूर्ण विवेक।।


🪴 शुभमस्तु !


11.01.2021◆11.45आरोहणम  मार्तण्डस्य।


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