शनिवार, 30 जनवरी 2021

वैचारिक गुलामी का दौर [ लेख ]


 ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ 

✍️ लेखक©

 🦣 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

 ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ 

           आज वैचारिक गुलामी का दौर चल रहा है।सच के ऊपर पहरा है।आदमी का चरित्र दोहरा है। आप सच को सच कहने से भी डर रहे हैं। क्योंकि मीडिया और सत्तासीनों के द्वारा वही कहलवाना और सुनना पसंद है ,जिसे वे पसंद करते हैं।उनकी पसंद के विरुद्ध एक शब्द भी कहना, लिखना अथवा प्रकाशित करना अपराध है।अब सत्य भी अपराध है और सत्य लिखने बोलने वाला देशद्रोही है। आज सच वह नहीं है ,जो आप सोचते हैं। आज सच मात्र वही है ,जैसा वे सुनना पसंद करते हैं। सीधे शब्दों में यदि कहा जाए तो मानसिक गुलामी का साम्राज्य कायम है।

            अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कड़ा पहरा है।मानवाधिकार का खुलेआम हनन किया जा रहा है। आज की जनता, जनता नहीं रह गई है। उसका ' ब्रेनवाश' नहीं, 'ब्रेनवध' कर दिया गया है।जिस प्रकार विज्ञापनों में एक ही धारावाहिक में अनगिनत बार दिखाने के बाद यह बात दिमाग में बैठाने की कोशिश की जाती है कि फलां रिफाइंड ही सबसे अच्छा औऱ स्वास्थ्यवर्धक है, सरसों का तेल जैसी चीजें गँवारू चीजें हैं।जबकि वास्तविकता इसके सर्वथा विपरीत ही होती है। ऐसा लगता है कि देश के हर नागरिक को यदि सबसे ज्यादा चिंता किसी बात की है ,तो वह देश की ही है।

            'व्हाट्सएप विश्वविद्यालय' अथवा 'मीडिया विश्वविद्यालय' के द्वारा जो शिक्षा का विष वमन किया जा रहा है ,उसी वमन को अपना प्रातराश, मध्यान्ह और रात्रि -भोजन मानने वाला देशवासी उसी का वमन करते हुए देखा जा सकता है। आदमी की आपसी बहस का मुख्य मुद्दा भी यही है।रेल,बस, चाय घर आदि अनेक सार्वजनिक स्थानों पर अलादीन के चिराग के जिन्न की तरह प्रकट हो जाता है। जनता का अपना जन बोध ही मर चुका है। आज वह मतदाता भी नहीं है।जनता भी नहीं है। केवल और केवल भेड़ों को भीड़ है ,जो अंधे कुँए की ओर आँखें बन्द करके चली जा रही है। सारे वीडियो , संदेश उसी एक धारा में बदलते चले जा रहे हैं। एक समय ऐसा भी आने वाला है ,जब इस मानसिक गुलामी से पीछे मुड़ कर लौट पाना भी सम्भव नहीं होगा। तब सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही चीज हाथ में रह जायेगी ,वह होगी: 'हाथ मलना।' 

               महाभारत के एक मुहाने पर बैठे हुए हम केवल कौरवों और पांडवों के दो धड़ों में बांटे जाकर भयंकर भविष्य की विभीषिका का आनन्द लेने के लिए उत्सुक से दिखाई दे रहे हैं। उन्हें नहीं पता कि इस महायुध्द में देखने वाले आज के उत्साही औऱ उत्सुक दर्शक पहले ही काम आने वाले हैं। सत्ता और मीडिया फिर भी वहीं के वहीं टी वी चैनलों पर तू तड़ाक ,बम भड़ाक की बहस करते हुए देखे जाएंगे। एक भयंकर ज्वालामुखीय विस्फ़ोट की ओर ले जाया जा रहा है ,और हम लोग आराम से स्मार्ट फोन औऱ टी वी पर उस दिन की प्रतीक्षा का आनंद लेने में मग्न हैं।

             जिस व्यक्ति का 'ब्रेनवध ' हो जाय ,वह व्यक्ति नहीं रह जाता। मात्र एक शव की तरह उपयोगकर्ताओं द्वारा उसका उपयोग (उपयोग कम दुरुपयोग अधिक) कर लिया जाता है। जैसे भैंस का कटड़ा मर जाने पर लोग उसी मृत कटड़े की खाल में भूसा भर के भैंस के आगे खड़ा करके दूध दुह लेते हैं ,ठीक वैसे ही इस 'ब्रेनवध'किए हुए मानव शव का उपयोग क्रीत मीडिया अथवा सत्ता धारियों द्वारा धड़ल्ले से किया जा रहा है।शव को क्या पता कि उसका क्या हो रहा है? यही स्थिति आज के जनता के जनतात्व से हीन मानव की हो गई है। काले कम्बल ने हमें नहीं जकड़ा है , हम कम्बल को ही नहीं छोड़ पा रहे हैं। अंतिम देवता के रूप में देखने वाले दर्शक सम्मोहन में विक्षिप्तता की स्थिति में सो रहे हैं। प्रगाढ़ निद्रा स्वप्न दिखाती है,जो वे देख रहे हैं। यह स्वप्न शीघ्र टूटने वाला भी नहीं है। सब जानते हुए भी जो आग में अपने पैर झोंक देता है ,उसे क्या कहते हैं, मुझे यह बतलाने की आवश्कता नहीं है। यह दौर जन जागरण का नहीं है, आम जन मानसिक दासता का दौर है। हाथ कंगन को आरसी क्या! पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या!! 

 🪴 शुभमस्तु !

 03.01.2021.7.00अपराह्न। 



  


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...