◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
✍️ शब्दकार ©
🦩 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
अपनी प्रशंसा
किसको प्रिय नहीं,
झूठी हो भले
या हो वह सही,
जब तक न पड़े
प्रशंसा में
प्रशंसक की ओर से
कुछ या बोरा भर चीनी,
तब तक आता नहीं स्वाद
प्रशंसित को
नहीं आती
सुगंध रसभीनी।
सच में झूठ का पुट
होना भी जरूरी है,
छः की छत्तीस करना
प्रशंसक की मजबूरी है,
तिल का बनाया जाए
हिमालय पहाड़,
प्रशंसित लगता है
पवन के वेग से
दहाड़।
जड़ कालिदास को
महाकवि बनाने में,
अहम भूमिका थी
प्रशंसकों की,
विद्योत्तमा की रही होगी
विवाह के बाद,
उससे पहले तो
प्रश्नों के सटीक उत्तर भी
देने थे ,
अन्यथा कालिदास जी के
पड़ने वाले लेने के देने थे।
राजनेताओं की झूठी
उपाधियाँ ,
इसी श्रेणी में आती हैं,
जब नेता और नेतियाँ
मंत्री पद की गहरी
कुर्सी में धँस जाती हैं,
तो फिर नकली भी
असली की चासनी में
लिपट झपट जाती है,
लग जाती हैं
चापलूसों की कतारें,
फिर तो पी एच. डी .धारी भी
आरती उतारें।
कितनी महान है
झूठी प्रशंसा ,
जो जड़ को भी
महान बनाती है,
छः गुणी को
छत्तीस बनाती है,
असली सोने से
नकली सोना
चमकता है
कुछ ज्यादा,
पाने वाले
पा ही जाते हैं
अधिक फ़ायदा,
नहीं चलता यहाँ
कायदा या बेकायदा !
आज के जमाने में
आदमी असली नहीं,
असली प्रशंसा
ढूँढ़ते हो 'शुभम',
ज़्यादा या कम
झूठ का छोंक भी
जरूरी है,
अन्यथा महक
नहीं आती,
दूल्हे को देखकर
दुल्हन यों ही
नहीं शरमाती,
भले सुहाग सेज पर
पोल खुल जाती!
पर अब क्या?
भँवरिया सात तो
पड़ ही गईं,
दो जोड़ी नयनों की
नज़र तो लड़ ही गई।
🪴 शुभमस्तु !
१४.०१.२०२१◆८.३०पतनम मार्त्तण्डस्य।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें