072/2024
© शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
गोबरवासी है गुबरैला।
बनना नहीं हमें गुबरैला।।
भाती जिसे गंध गोबर की,
कहलाता है वह गुबरैला।
कलाकंद रबड़ी न सुहाती,
बतलाता सबको गुबरैला।
छोटी - सी दुनिया है उसकी,
छोड़ कहाँ जाए गुबरैला !
मतलब नहीं किसी से उसको,
स्वयं लीन है नित गुबरैला ।
क्षण भर को वह बाहर झाँके,
गोबर में जाता गुबरैला।
गोबर घर गोबर ही खाना,
रंगमहल कहता गुबरैला।
'शुभम्' बहुत मानव भी ऐसे,
कहते हम जिनको गुबरैला।
●शुभमस्तु !
22.02.2024● 10.15आ०मा०
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