064/2024
©व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
एक बहुत ही प्रचलित और सामाजिक शब्द है :'अंधविश्वास'।इस शब्द की गहराई से जाँच पड़ताल करते हुए यदि परिभाषित करने का प्रयास किया जाए तो उसे भी महान बनाया जा सकता है।यदि आपने कभी ऐसा प्रयास किया हो या किए हुए प्रयास पर अपना दावा ठोका हो तो आप निसंकोच बता सकते हैं।आप कहें न कहें ,मुझे तो कहना ही है। तो पहले मेरा विचार भी जान लीजिए।उसके बाद आप यह भी कह सकते हैं कि मैं भी यही कहने वाला था। यदि आप मुझे पहले कहने का सु अवसर प्रदान करते तो मैं भी यही कहता जो आप कह रहे हैं।
'अंधविश्वास' के सम्बंध में मेरा यही एक विचार है कि अंधविश्वास अर्थात अंधों में फैला हुआ ऐसा विश्वास ;जिस पर बिना ही सोचे समझे मान लिया जाए। केवल मान ही न लिया जाए ,वरन सत्य मान लिया जाए।आप कहेंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी बात को बिना सोचे - समझे मानने वाले को अंधा कैसे कहा जा सकता है?यदि हमारा कोई विश्वसनीय व्यक्ति कोई बात रखता है ,तो माननी पड़ती है।मेरा मत यह है कि अंधे की तरह मान लेना ही अंधे हो जाने जैसा है।वह व्यक्ति अपने चर्म चक्षुओं से भले ही अंधा न हो ,किंतु यदि उसके पास विवेक की आँख देख नहीं रही हो तो अंधा या अंधवत ही कहा जायेगा।
आज के युग में अंधविश्वास फैलाने के लिए वोट बैंक की जरूरत होती है। यदि विश्वास के संबंध में वोट बैंक मजबूत है,तो पत्थर भी दूध पीने लगते हैं।यदि कोई इसका विरोध करता है तो उसे पल भर में धर्म विरोधी करार दिया जाता है।कौन सही गलत के पचड़े में पड़े , इसलिए उस झूठ को ज्यों का त्यों मान लेने में ही खैरियत है।इसलिए आम आदमी- समाज में अंध विश्वासियों का अनुपात कुछ ज्यादा ही होता है।
आज अन्ध विश्वासों के क्षेत्रों का विस्तार हो रहा है। क्या समाज और क्या धर्म,क्या निरक्षर और क्या साक्षर ,क्या सियासत और क्या कूटनीति आदि सर्वत्र अंधविश्वासों का बोलबाला है।अफ़वाह फैलाने वाले वोटर इस क्षेत्र में अच्छे काम आते हैं। वे मिथ्या बात को बहुत सारा नमक मिर्च लगाकर स्वादिष्ट भी बनाते हैं।यही कारण है कि धार्मिक और राजनीतिक क्षेत्रों में वे पाले भी जाते हैं,जिनका काम केवल अंध विश्वास फैलाना होता है।किसको फुर्सत है कि दूध का दूध और पानी का पानी अलग-अलग होने का इंतज़ार करे! बस सुना और मान लिया। हलवाई की दूकान पर जाकर कोई भी असली और नकली खोए,पनीर, देशी घी या रिफाइंड की पहचान नहीं करता।खरीदा और खाया।इससे आगे वह सोच नहीं पाया।अंधविश्वास की जड़ बहुत गहरे में होती है।दमदार अफवाहें उसे और शक्ति प्रदान करती हैं।आज के युग में तो सोशल मीडिया यह काम बड़ी ही सहजता से कर रहा है कि अंधविश्वास सिर चढ़कर बोल रहे हैं और अपना वोट बैंक विस्तार करते हुए समाज को पतनोन्मुख करते चले जा रहे हैं।
जिस क्षेत्र में अंधविश्वासों का बोलबाला है,वही तो स्वार्थी लोगों का निवाला है।अपने को किसी संभावित संकट से बचाने के लिए भी अंधविश्वास बड़े काम की चीज है।एक बार एक अफ़वाह फैलाई गई थी कि घर के दरवाजे पर उलटा सातिया (स्वस्तिक चिह्न) लगाएँ ,तो घर पर कोई संकट आने से वह बचा रहेगा।तो गाँव - नगरों की महिलाएँ अपने घर के दरवाजों पर उलटे सातीये लगाने लगीं। कभी भानजे को जलेबी खिलाई जाती है तो कभी दोपहर के बाद सत्तू खाने से मामा रास्ता भटक जाता है।कभी पत्थर की मूर्तियाँ बोलने लगती हैं ,तो कभी उनकी आँखों की पुतलियाँ जीवित मानव की तरह कार्य करने लगती हैं। देश और जन समाज में फैले हुए हजारों ऐसे अंधविश्वास गहराई से जड़ जमाए हुए उसे वैज्ञानिकता की कसौटी से विमुखता प्रदान कर रहे हैं।एक ओर हम चाँद पर मानवीय पदचिह्न बना रहे हैं ,तो ये अंधविश्वास भी उसे उतने ही नीचे रसातल की ओर धकेलते चले जा रहे हैं।
●शुभमस्तु !
15.02.2024●5.45प०मा०
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