61/2024
©व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
ढपोरशंख की खोज बहुत पहले हो गई थी। इसलिए आज उसके इतिहास में जाने की आवश्यकता नहीं है।इतना अवश्य है कि तब के और अब के ढपोरशंखों में यदि कुछ असमानताएं हैं तो कुछ समानताएँ भी हैं।समानताएँ हैं,तभी तो वे आज भी ढपोरशंख बने हुए हैं ; अन्यथा वे भी अपना नाम बदलकर कुछ और हो गए होते।जैसे बहुत सारे अपने नाम बदलकर कुछ के कुछ हो गए।
यदि ढपोरशंख की देह संरचना की दृष्टि से चर्चा करें तो आदि कालीन ढपोरशंख कैल्शियम कार्बोनेट से निर्मित और अत्यंत कठोर होते थे।प्रथम आदि ढपोरशंख देना भी जानता था।किंतु उसकी आगामी पीढ़ी के ढपोरशंखों ने अपने नामों को सही अर्थों में सार्थक कर दिया।कहना यह चाहिए कि उसी के वंशज आज तक अपनी वंशावली बढ़ाते चले आ रहे हैं। आज वे कैल्शियम कार्बोनेट के बने हुए नहीं हैं। आज उनका सृजन हाड़ माँस रक्त मज्जा और त्वचा आदि से हो रहा है।
अब यदि आप किसी आधुनिक ढपोरशंख का नाम और परिचय पूछना चाहें तो कृपया आप मुझे क्षमा करेंगे क्योंकि आज के युग में कोई एक ढपोरशंख हो तो डरते -डरते ही सही उसका नामोल्लेख भी करूँ ; किंतु इस धरती पर तो कदम -कदम पर ढपोरशंख मिल जाएँगे।वैसे एक व्यंग्यकार किसी भी ढपोरशंख से डरता नहीं है।तो मैं भला क्यों डरने लगा। कुल मामला ये है कि जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है ,जहाँ ढपोरशंख न हों।जैसे पुराने वाला ढपोरशंख केवल बोलता था ,किंतु जो बोलता था कि इतना दे दूँगा। वचन देने के बाद वह कभी भी अपना वचन पूरा नहीं करता था।केवल बड़े- बड़े वादे करना ही उसका काम था,देना तो सीखा ही नहीं। इतने से संकेत से यदि आप समझ सकें तो समझ लें, वरना मुझे फिर यही कहना पड़ेगा कि " ना समझे वह अनाड़ी है।"
ढपोरशंखों के क्षेत्र की बात की जाए तो इसके लिए कोई विशेष क्षेत्र निर्धारित नहीं है।समाज,सियासत, शिक्षा,राजस्व,अधिकारी,कर्मचारी, धर्माचारी,गेरुआधारी,हलका या भारी, नेता,अभिनेता आदि सभी के समुद्र ढपोरशंखों से भरे पड़े हैं।उनके मुँह में बड़ी- बड़ी जुबानें हैं,किंतु उनके प्रति कृतज्ञता भाव किंचित मात्र नहीं है। जैसे किसी मशीन में कोई ध्वनि रिकॉर्ड कर दी गई हो ,बस वैसे ही बजना उनका काम है। असली ढपोरशंख की यही पहचान है।यदि देश के समग्र ढपोरशंख समाज को सूचीबद्ध किया जाए तो उसे सूचीबद्ध नहीं ग्रंथबद्ध करना होगा। यहाँ सब कुछ ढपोरशंखमय है। आगे पीछे ,ऊपर नीचे, इधर उधर, नजर आपकी जाती हो जिधर : ढपोरशंख ही ढपोरशंख दिखाई देंगे।उनके दाँत हाथी दाँत से कम मूल्यवान नहीं , दिखाने के और तथा खाने के और।
वात प्रधानता ढपोरशंखों का प्रमुख गुण है। आज वे निर्जीव नहीं, सजीव हैं। नदी ,तालाब या सागर में नहीं ; मानव समाज में मानव देह में ही सुशोभित होते हैं। मैं पहले ही बता चुका हूँ ,कि वे बजते ही रहते हैं। बजने के अनुरूप कभी चलते नहीं। यदि बजने के अनुरूप चलने भी लगें तो उनका नाम ढपोरशंख के स्थान पर कुछ और ही करने के लिए सोचना पड़ जायेगा।हमें तो इसी बात की प्रतीक्षा है कि उनका नाम बदला जाए,किंतु उन्हें भी तो अपने ढपोरपन को विदा करना होगा।
हमारा आपसे यही विनम्र आग्रह है कि आप भी अपने अंदर छिपे हुए ढपोरशंखत्व को पहचानें।यदि वहाँ से आपका ढपोरत्व विदा हो जाता है ,तो इस लेख के लेखक की बहुत बड़ी उपलब्धि होगी और ढपोरशंखों की मतदाता संख्या में से एक मत कम हो सकेगा। क्योंकि ढपोरशंख होना कोई अच्छी बात नहीं है। सम्भवतः आप भी इस सत्य से अवश्य अवगत होंगे। वैसे आपके क्या किसी भी ढपोरशंख के लिए यह कोई सहज में होने वाला काम नहीं है।अन्यथा न लें तो यही कहूँगा कि गुबरैला गोबर छोड़कर कलाकंद को क्यों पसंद करने लगा ! गुबरैले के लिए गोबर ही उसका संस्कार है। उसके लिए सर्वथा सकार है,साकार है।इसलिए कलाकन्द से उसे सदा ही नकार है।भले ही यह उसका मनोविकार है। इसीलिए वह गोबर के प्रति महाउदार है।मेरे कहने का मात्र यही सार है।
●शुभमस्तु !
14.02.2024 ●1.15प०मा०
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